- महाभारत अनुशासन पर्व के दानधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 7 में कर्मों के फल का वर्णन हुआ है[1]-
विषय सूची
युधिष्ठिर का प्रश्न
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! युधिष्ठिर ने पूछा- महापुरुषों में प्रधान भरतश्रेष्ठ! अब मैं समस्त शुभ कर्मों के फल क्या है? यह पूछ रहा हूं, अत: यही बताइये।
भीष्म द्वारा कर्मों के फल का वर्णन
भीष्म जी ने कहा- भरतनन्दन युधिष्ठिर! तुम मुझसे जो कुछ पूछ रहे हो, यह ऋषियों के लिय भी रहस्य का विषय है, किंतु मैं तुम्हें बतला रहा हूँ।सुनो, मरने के बाद जिस मनुष्य को जैसी चिर अभिलषित गति मिलती है, उसका भी वर्णन करता हूँ। मनुष्य जिस-जिस (स्थूल या सूक्ष्म) शरीर से जो-जो कर्म करता है उसी-उसी शरीर से उस-उस कर्म का फल भोगता है। जिस-जिस अवस्था में वह जो-जो शुभ या अशुभ कर्म करता है, प्रत्येक जन्म की उसी-उसी अवस्था में वह उसका फल भोगता है। पांचों इन्द्रियों द्वारा किया हुआ कर्म कभी नष्ट नहीं होता है। वे पांचों इन्द्रियों और छठा मन- ये उसक कर्म के साक्षी होते हैं। अत: मनुष्य को उचित है कि यदि कोई अतिथि घर पर आ जाय तो उसको प्रसन्न दृष्टि से देखे। उसकी सेवा में मन लगावे। मीठी बोली बोलकर उसे संतुष्ट करे। जब वह जाने लगे तो उसके पीछे-पीछे कुछ दूर तक जाये और जब तक वह रहे उसके स्वागत-सत्कार में लगा रहे- ये पांच काम करना गृहस्थ के लिये पांच प्रकार की दक्षिणाओं से युक्त यज्ञ कहलाता है। जो थके-मांदे अपचिरत पथिक को प्रसन्नतापूर्वक अन्न दान करता है, उसे महान पुण्यफल की प्राप्ति होती है। जो वानप्रस्थी वेदी पर शयन करते हैं उन्हें जन्मान्तर में उत्तम गृह और शय्या की प्राप्ति होती है। जो चीर और वल्कल वस्त्र पहनते हैं उन्हें दूसरे जन्म में उत्तम वस्त्र और उत्तम आभूषणों की प्राप्ति होती है। जिसका चित्त योग युक्त होता है उस तपोधन पुरुष को दूसरे जन्म में अच्छे-अच्छे वाहन और यान उपलबध होते हैं तथा अग्नि की उपासना करने वाले राजा को जन्मान्तर में पौरूष की प्राप्ति होती है।
रसों का परित्याग करने से सौभाग्य की और मांस का त्याग करने से पशुओं तथा पुत्रों की प्राप्ति होती है। जो तपस्वी नीचे सिर करके लटकता है अथवा जल में निवास करता है, तथा जो सदा ही अकेला सोता (ब्रहृाचर्य का पालन करता) है, वह मनोवांछित गति को प्राप्त होता है। जो अतिथि को पैर धोने के लिये जल, बैठने के लिये आसन, प्रकाश के लिये दीपक, खाने के लिए अन्न और ठहरने के लिए घर देता है, इस प्रकार अतिथि का सत्कार करने के लिय इन पांच वस्तुओं का दान ‘पंचदक्षिण यज्ञ’ कहलाता है। जो वीरासन रणभूमि में जाकर वरीशय्या (मृत्यु)- को प्राप्त हो वीर स्थान (स्वर्गलोक) में जाता है, उसे अक्षय लोकों की प्राप्ति होती है। वे लोक सम्पूर्ण कामनाओं की प्राप्ति कराने वाले होते हैं। प्रजानाथ! मनुष्य दान से धन पाता है, मौन-व्रत के पालन से दूसरों द्वारा आज्ञापालन कराने की शक्ति प्राप्त करता है, तपस्या से भोग और ब्रहृाचर्य-पालन से जीवन (आयु) की उपलब्धि होती है। अंहिसा धर्म के आचरण से रूप, ऐश्वर्य और आरोग्यरूपी फल की प्राप्ति होती है। फल-मूल खाने वाले को राज्य और पत्ते चबाकर रहने वाले को स्वर्ग की प्राप्ति होती है। राजन्! जो आमरण अनशन का व्रत लेकर बैठता है उसके लिए सर्वत्र सुख बताया गया है। शाकाहारी की दीक्षा लेने पर गोधन की प्राप्ति होती है और तृण खाकर रहने वाला पुरुष स्वर्ग लोक में जाता है।
स्वर्गलोक प्राप्ति के मार्ग
स्त्री-संबंधी भोगों का परित्याग करके त्रिकाल स्नान करते हुए वायु पीकर रहने से यज्ञ का फल प्राप्त होता है। सत्य से मनुष्य स्वर्ग को और दीक्षा से उत्तम को कुल को पाता है। जो ब्राह्मण सदा जल पीकर रहा है, अग्निहोत्र करता है और मंत्र-साधना में संलग्न रहता है, उसे राज्य मिलता है और निराहारव्रत करने से मनुष्य स्वर्ग लोग में जाता है। पृथ्वीनाथ! जो पुरुष बारह वर्षों तक के लिये व्रत की दीक्षा लेकर अन्न का त्याग करता और तीर्थों में स्नान करता रहता है, उसे रणभूमि में प्राण त्यागने वाले वीर से भी बढ़कर उत्तम लोक की प्राप्ति होती है। जो सम्पूर्ण वेदों का अध्ययन कर लेता है, वह तत्काल दु:ख से मुक्त हो जाता है तथा जो मन से धर्म का आचरण करता है, उसे स्वर्गलोक की प्राप्ति होती है। खोटी बुद्धिवाले पुरुषों के लिये जिसका त्याग करना कठिन है, जो मनुष्य के जीर्ण हो जाने पर भी स्वयं जीर्ण नहीं होती तथा जो प्राणनाशक रोग के समान सदा कष्ट देती रहती है, उस तृष्णा का त्याग कर देने वाले पुरुष को ही सुख मिलता है। जैसे बछड़ा हजारों गौओं के बीच में अपनी माता को ढूंढ लेता है, उसी प्रकार पहले का किया हुआ कर्म कर्ता को पहचान कर उसका अनुसरण करता है। जैसे फूल और फल किसी की प्रेरणा न होने पर भी अपने समय का उल्लंघन नहीं करते- ठीक समय पर फूलने-फलने लग जाते हैं, वैसे ही पहले का किया हुआ कर्म भी समय पर फल देता ही है। मनुष्य जीर्ण (जराग्रस्त) होने पर उसके केश जीर्ण होकर झड़ जाते हैं, वृद्ध पुरुष के दांत भी टूट जाते हैं, नेत्र और कान भी जर्णी होकर अन्धे-बहरे हो जाते हैं। केवल तृष्णा ही जीर्ण नहीं होती है (वह सदा नयी-नवेली बनी रहती है)। मनुष्य जिस व्यवहार से पिता को प्रसन्न करता है, उससे भगवान प्रजापति प्रसन्न होते हैं। जिस बर्ताव से वह माता को संतुष्ट करता है, उससे पृथ्वी देवी की भी पूजा हो जाती है तथा जिससे वह उपाध्याय को तृप्त करता है, उसके द्वारा परब्रहृा परमात्मा की पूजा सम्पन्न हो जाती है। जिसने अन तीनों का आदर किया, उसके द्वारा सभी धर्मों का आदर हो गया और जिसने इन तीनों का अनादर कर दिया, उसकी सम्पूर्ण यज्ञादिक क्रियाएं निष्फल हो जाती हैं।
वैशम्पायन जी कहते है- जनमेजय! भीष्म जी की यह बात सुनकर समस्त श्रेष्ठ कुरुवंशी आश्यर्चकित हो उठे। सबके मन में हर्षजनित उल्लास भर गया। उस समय सभी बड़े प्रसन्न हुए। भीष्म जी कहते हैं- युधिष्ठिर! वेदमंत्रों का व्यर्थ (अशुद्ध) उपयोग (उच्चारण) करने पर जो पाप लगता है, सोमयाग को दक्षिणा आदि न देने के कारण व्यर्थ कर देने पर जो दोष लगता है तथा विधि और मंत्र के बिना अग्नि के निरर्थक आहुति देने पर जो पाप होता है, वह सारा पाप मिथ्या भाषण करने से प्राप्त होता है। राजन! शुभ और अशुभ फल की प्राप्ति के विषय में महर्षि व्यास ने ये सब बातें बतायी थीं, जिन्हें मैंने इस समय तुमसे कहा है। अब और क्या सुनाना चाहते हो?[2]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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| वृषोत्सर्ग आदि के विषय में देवताओं, ऋषियों और पितरों का संवाद
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| अग्नि, लक्ष्मी, अंगिरा, गार्ग्य, धौम्य तथा जमदग्नि द्वारा धर्म के गूढ़ रहस्य का वर्णन
| वायु द्वारा धर्माधर्म के रहस्य का वर्णन
| लोमश द्वारा धर्म के रहस्य का वर्णन
| अरुन्धती, धर्मराज और चित्रगुप्त द्वारा धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन
| प्रमथगणों द्वारा धर्माधर्म सम्बन्धी रहस्य का कथन
| दिग्गजों का धर्म सम्बन्धी रहस्य एवं प्रभाव
| महादेव जी का धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन
| स्कन्ददेव का धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन
| भगवान विष्णु और भीष्म द्वारा धर्म सम्बन्धी रहस्यों के माहात्म्य का वर्णन
| जिनका अन्न ग्रहण करने योग्य है और जिनका ग्रहण करने योग्य नहीं है, उन मनुष्यों का वर्णन
| दान लेने और अनुचित भोजन करने का प्रायश्चित
| दान से स्वर्गलोक में जाने वाले राजाओं का वर्णन
| पाँच प्रकार के दानों का वर्णन
| तपस्वी श्रीकृष्ण के पास ऋषियों का आना
| ऋषियों का श्रीकृष्ण का प्रभाव देखना और उनसे वार्तालाप करना
| नारद द्वारा हिमालय पर शिव की शोभा का विस्तृत वर्णन
| शिव के तीसरे नेत्र से हिमालय का भस्म होना
| शिव-पार्वती के धर्म-विषयक संवाद की उत्थापना
| वर्णाश्रम सम्बन्धी आचार
| प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप धर्म का निरूपण
| वानप्रस्थ धर्म तथा उसके पालन की विधि और महिमा
| ब्राह्मणादि वर्णों की प्राप्ति में शुभाशुभ कर्मों की प्रधानता का वर्णन
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| स्वर्ग और नरक प्राप्त कराने वाले कर्मों का वर्णन
| उत्तम और अधम कुल में जन्म दिलाने वाले कर्मों का वर्णन
| मनुष्य को बुद्धिमान, मन्दबुद्धि तथा नपुंसक बनाने वाले कर्मों का वर्णन
| राजधर्म का वर्णन
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| रणयज्ञ में प्राणोत्सर्ग की महिमा
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| अहिंसा और इन्द्रिय संयम की प्रशंसा
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| त्रिवर्ग का निरूपण
| कल्याणकारी आचार-व्यवहार का वर्णन
| विविध प्रकार के कर्मफलों का वर्णन
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| उमा-महेश्वर संवाद में महत्त्वपूर्ण विषयों का विवेचन
| प्राणियों के चार भेदों का निरूपण
| पूर्वजन्म की स्मृति का रहस्य
| मरकर फिर लौटने में कारण स्वप्नदर्शन
| दैव और पुरुषार्थ तथा पुनर्जन्म का विवेचन
| यमलोक तथा वहाँ के मार्गों का वर्णन
| पापियों की नरकयातनाओं का वर्णन
| कर्मानुसार विभिन्न योनियों में पापियों के जन्म का उल्लेख
| शुभाशुभ आदि तीन प्रकार के कर्मों का स्वरूप और उनके फल का वर्णन
| मद्यसेवन के दोषों का वर्णन
| पुण्य के विधान का वर्णन
| व्रत धारण करने से शुभ फल की प्राप्ति
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| गुरुपूजा का महत्त्व
| उपवास की विधि
| तीर्थस्थान की विधि
| सर्वसाधारण द्रव्य के दान से पुण्य
| अन्न, सुवर्ण और गौदान का माहात्म्य
| भूमिदान के महत्त्व का वर्णन
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| नाना प्रकार के दानों का फल
| लौकिक-वैदिक यज्ञ तथा देवताओं की पूजा का निरूपण
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| श्रीविष्णुसहस्रनामस्तोत्रम्
| जपने योग्य मंत्र और सबेरे-शाम कीर्तन करने योग्य देवता
| ऋषियों और राजाओं के मंगलमय नामों का कीर्तन-माहात्म्य
| गायत्री मंत्र का फल
| ब्राह्मणों की महिमा का वर्णन
| कार्तवीर्य अर्जुन को वरदान प्राप्ति और उनमें अभिमान की उत्पत्ति का वर्णन
| ब्राह्मणों की महिमा विषयक कार्तवीय अर्जुन और वायु देवता का संवाद
| वायु द्वारा उदाहरण सहित ब्राह्मणों की महत्ता का वर्णन
| ब्राह्मणशिरोमणि उतथ्य के प्रभाव का वर्णन
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| श्रीकृष्ण का प्रद्युम्न को ब्राह्मणों की महिमा बताना
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| श्रीकृष्ण द्वारा भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन
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| भीष्म द्वारा धर्माधर्म के फल का वर्णन
| साधु-असाधु के लक्षण तथा शिष्टाचार का निरूपण
| युधिष्ठिर का विद्या, बल और बुद्धि की अपेक्षा भाग्य की प्रधानता बताना
| भीष्म का शुभाशुभ कर्मों को ही सुख-दु:ख की प्राप्ति का कारण बताना
| नित्यस्मरणीय देवता, नदी, पर्वत, ऋषि और राजाओं के नाम-कीर्तन का माहात्म्य
| भीष्म की अनुमति से युधिष्ठिर का सपरिवार हस्तिनापुर प्रस्थान
भीष्मस्वर्गारोहण पर्व
भीष्म के अन्त्येष्टि संस्कार की सामग्री लेकर युधिष्ठिर आदि का आगमन
| भीष्म का धृतराष्ट्र और युधिष्ठिर को कर्तव्य का उपदेश देना
| भीष्म का श्रीकृष्ण आदि से देहत्याग की अनुमति लेना
| भीष्म का प्राणत्याग
| धृतराष्ट्र द्वारा भीष्म का दाह संस्कार
| गंगा का भीष्म के लिए शोक प्रकट करना और श्रीकृष्ण का उन्हें समझाना
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