मद्य और मांस भक्षण के दोष तथा उनके त्याग की महिमा

महाभारत अनुशासन पर्व के दानधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 115 में मद्य और मांस भक्षण के दोष तथा उनके त्याग की महिमा का वर्णन हुआ है।[1]

युधिष्ठिर का प्रस्न

वैशम्‍पायन जी कहते हैं- जनमेजय! युधिष्ठिर ने पूछा-पितामह? आपने बहुत बार यह बात कही है कि अहिंसा परम धर्म है अत:मांस के परि‍त्‍याग रुप धर्म के विषय में मुझे संदेह हो गया है। इसलिये मैं यह जानना चाहता हॅूं कि मांस खाने वाले की क्‍या हानि होती है और जो मांस नहीं खाता उसे कौन सा-लाभ मिलता है? जो स्‍वयं पशु का वध करके उस का मांस खाता है या दूसरे के दिये हुए मांस का भक्षण करता है या जो दूसरे के खाने के लिये पशु का वध करता है अथवा जो खरीदकर मांस खाता है, उसको क्‍या दण्‍ड मिलता है? निष्‍पाप पितामह! मैं चाहता हॅूं कि आप इस विषय का यथार्थरुप से विेवेचन करें। मैं निश्चिंतरुप से इस सनातन धर्म के पालन की इच्‍छा रखता हूँ। मनुष्‍य किस प्रकार आयु प्राप्‍त करता है, कैसे बलवान होता है, किस तरह उसे पूर्णांगता प्राप्‍त होती है और कैसे वह शुभ लक्षणों से संयुक्‍त होता है?

भीष्‍म द्वारा मांस न खाने से धर्म का वर्णन

भीष्‍म जी ने कहा- राजन! कुरुनन्‍दन! मांस न खाने से जो धर्म होता है, उसका मुझ से यथार्थ वर्णन सुनो तथा उस धर्म की जो उत्तम विधि है, वह भी जान लो। जो सुन्‍दर रुप, पूर्णांगता, पूर्ण आयु, उत्तम बुद्धि, सत्‍व, बल और स्‍मरण शक्ति प्राप्‍त करना चाहते थे, उन महात्‍मा पुरुषो ने हिंसा का सर्वथा त्‍याग कर दिया था। कुरुनन्‍दन युधिष्ठिर! इस विषय को लेकर ऋषियों में अनेक बार प्रश्‍नोत्तर हो चुका हैं। अन्‍त में उन सब की राय से जो सिद्धान्त निश्चित हुआ हैं, उसे बता रहा हूँ, सुनो। युधिष्ठिर! जो पुरुष नियमपूर्वक व्रत का पालन करता हुआ प्रति मास अश्वमेध यज्ञ का अनुष्‍ठान कारता है तथा जो केवल मद्य और मांस का परित्‍याग करता है, उन दोनों को एक-सा ही फल मिलता है। राजन! सप्‍तर्षि, वालखिल्‍य तथा सूर्य की किरणों का पान करने वाले अन्‍यान्‍य मनीषी महर्षि मांस न खाने की ही प्रशंसा करते हैं। स्‍वायम्‍भुव मनु का कथन है कि जो मनुष्‍य न मांस खाता और न पशु की हिंसा करता और न दूसरे से ही हिंसा कराता है, वह सम्‍पूर्ण प्राणियों का मित्र है। जो पुरुष मांस का परित्‍याग कर देता है, उसका कोई भी प्राणी तिरस्‍कार नहीं करता है, वह सब प्राणियों का विश्वास पात्र हो जाता है तथा श्रेष्‍ठ पुरुष उसका सदा सम्‍मान करते हैं। धर्मात्‍मा नारद जी कहते हैं- जो दूसरे के मांस से अपना मांस बढ़ाना चाहता है, वह निश्चय ही दु:ख उठाता है। बृहस्‍पति जी का कथन है- जो मद्य और मांस त्‍याग देता है, वह दान देता, यज्ञ करता और तप करता है अर्थात उसे दान, यज्ञ और तपस्‍या का फल प्राप्‍त होता है। जो सौ वर्षो तक प्रति मास अश्वमेध यज्ञ करता है और जो कभी मांस नहीं खाता है- इन दोनों का समान फल माना गया है। मद्य और मांस का परित्‍याग करने से मनुष्‍य सदा यज्ञ करने वाला, सदा दान देने वाला और सदा तप करेन वाला होता है। भारत! जो पहले मांस खाता रहा हो और पीछे उसका सर्वथा परित्‍याग कर दे, उसका जिस पुण्‍य की प्राप्ति होती है, उसे सम्‍पूर्ण वेद और यज्ञ भी नहीं प्राप्‍त करा सकते।[1]

मांस के रस का आस्‍वादन एवं अनुभव कर लेने पर उसे त्‍यागना और समस्‍त प्राणियों का अभय देने वाले इस सर्वश्रेष्‍ठ अहिंसा व्रत का आचरण करना अत्‍यन्‍त कठिन हो जाता है।[2] जो विद्वान सब जीवें को अभय दान कर देता है, वह इस संसार में नि:संदेह प्राण दाता माना जाता है। इस प्रकार मनीषी पुरुष अहिंसा रुप परम धर्म की प्रशंसा करते हैं। जैसे मनुष्‍य को अपने प्राण प्रिय होते हैं, उसी प्रकार समस्‍त प्राणियों को अपने-अपने प्राण प्रिय जान पड़ते हैं। अत: जो बुद्धिमान और पुण्‍यात्‍मा है, उन्‍हें चाहि‍ये कि सम्‍पूर्ण प्राणियों को अपने समान समझें। जब अपने कल्‍याण की इच्‍छा रखने वाले विद्वानों को भी मृत्‍यु का भय बना रहता है, तब जीवित रहने की इच्‍छा वाले नीरोग और निरपराध प्राणियों को, जो मांस पर जीविका चलाने वाले पापी पुरुषों द्वारा बलपूर्वक मारे जाते हैं, क्‍यों न भय प्राप्‍त होगा। इसलिये महाराज! तुम्‍हें यह विदित होना चाहिये कि मांस का परित्‍याग ही धर्म, स्‍वर्ग और सुख का सर्वोत्तम आधार है। अहिंसा परमधर्म है, अहिंसा परम तप है और अहिंसा परम सत्‍य हैं क्‍योंकि उसी से धर्म की प्रवृति हेाती है। तृण से, काठ से अथवा पत्‍थर से मांस नहीं पैदा होता है, वह जीव की हत्‍या करने पर ही उपलब्‍ध होता है अत: उसके खाने में महान दोष है। जो लोग स्‍वाहा और (दवयज्ञ) ओ स्‍वधा (पितृयज्ञ) का अनुष्‍ठान करके यज्ञशिष्‍ट अमृत का भोजन करने वाले तथा सत्‍य और सरलता के प्रेमी है, वे देवता हैं, किंतु जो कुटिलता और असत्‍य भाषण में प्रवृत होकर सदा मांसभण किया करते हैं, उन्‍हें राक्षस समझो। राजन! जो मनुष्‍य मांस नहीं खाता, उसे संकटपूर्ण स्‍थानों, भयंकर दुर्गो एवं गहन वनों में, रात-दिन और दोनों संध्‍याओं में, चौराहों पर तथा सभाओं में भी दूसरों से भय नहीं प्राप्‍त होता तथा यदि अपने विरुद्ध हथियार उठाये गये हों अथवा हिंसक पशु एवं सर्पेां के भय सामने हों तो भी वह दूसरें से नहीं डरता हैं। इतना ही नहीं, वह समस्‍त प्राणियों को शरण देन वाला और उन सबक विश्वास पात्र होता है। संसार में न तो वह दूसरे को उद्वेव में डालता है और न स्‍वयं ही कभी किसी से उद्विगन होता है। यदि कोई भी मांस खाने वाला न रह जाय तो पशुओं की हिंसा करने वाला भी कोई न रहे ‘क्‍योंकि हत्‍यारा मनुष्‍य मांस खाने वालों के लिये ही पशुओं की हिंसा करता है। यदि‍ मांस को अभक्ष्‍य समझ कर सब लोग उसे खाना छोड़ दें तो पशुओं की हत्‍या स्‍वत:ही बंद हो जाय ‘क्‍योंकि मांस खाने वालों के लिये ही मृग आदि पशुओं की हत्‍या होती है। महातेजस्‍वी नरेश! हिंसकों की आयु को उनका पाप ग्रस लेता है। इसलिये जो अपना कल्‍याण चाहता हो, वह मनुष्‍य मांस का सर्वथा परित्‍याग कर दे। जैसे यहाँं हिंसक पशुओं का लोग शिकार खेलते हैं और वे पशु अपने लिये कहीं कोई रक्षक नहीं पाते, उसी प्रकार प्राणियों की हिंसा करने वाले भयंकर मनुष्‍य दूसरे जन्‍म में सभी प्राणियों के उद्वेग पात्र होते हैं और अपने लिये काई संरक्षक नहीं पाते हैं।[2]

मद्य और मांस भक्षण के दोष

लोभ से, बुद्धि के मोह से, बल-वीर्य की प्राप्ति के लिये अथवा पापियों के संसर्ग में आने से मनुष्‍यों की अधर्म में रुचि हो जाती हैं।[3] जो दूसरों के मांस से अपना मांस बढा़ना चाहता हैं, वह जहाँं कहीं भी जन्‍म लेता है, चैन से नहीं रह पाता है। नियम परायण महर्षियों ने मांस-भक्षण के त्‍याग को ही धन, यश, आयु तथा स्‍वर्ग की प्राप्ति का प्रधान उपाय और परम कल्‍याण का साधन बतलाया है। कुन्‍तीनन्‍दन! मांस भक्षण में जो दोष हैं, उन्‍हें बतलाते हुए मार्कण्‍डेय जी के मुख से मैंने पूर्वकाल में ऐसा सुन रखा है। ‘जो जीवित रहने की इच्‍छा वाले प्राणियों को मार कर अथवा उनके स्‍वयं मर जाने पर उनका मांस खाता है, वह न मारने पर भी उन-उन प्राणियों का हत्‍यारा ही समझा जाता है। खरीदने वाला धन के द्वारा,खाने वाला उपभोग के द्वारा और घातक वध एवं बन्‍धन के द्वारा पशुओं की हिंसा करता है। इस प्रकार यह तीन तरह से प्राणियों का वध होता है। ‘जो मांस को स्‍वयं नहीं खाता पर खाने वाले का अनुमोदन कारता है, वह मनुष्‍य भी भाव दोष के कारण मांस भक्षण के पाप का भागी होता है। इसी प्रकार जो मारने वाले का अनुमोदन करता है, वह भी हिंसा के दोष से लिप्‍त होता है।

‘जो मनुष्‍य मांस नहीं खाता और इस जगत में सब जीवों पर दया करता है, उसका कोई भी प्राणी तिरस्‍कार नहीं करते और वह सदा दीर्घ आयु एवं नीरोग होता है। ‘सुवर्णदान, गोदान और भूमिदान करने से जो धर्म प्राप्‍त होता है, मांस का भक्षण न करने से उसकी अपेक्षा भी विशिष्‍ट धर्म की प्राप्ति होती है। यह हमोर सुनने में आया है। ‘जो मांस खाने वालों के लिये पशुओं की हत्‍या करता है, वह मनुष्‍यों में अधम है। घातक को बहुत भारी दोष लगता है। मांस खाने वाले को उतना दोष नहीं लगता। ‘जो मांस लोभी मूर्ख एवं अधम मनुष्‍य यज्ञ-याग आदि वैदिक मार्गो के नाम पर प्राणियों की हिंसा करता है, वह नरक गामी होता है। ‘जो पहले मांस खाने के बाद फिर उससे निवृत हो जात है, उसको भी अत्‍यन्‍त महान धर्म की प्राप्ति होती है, क्‍योंकि वह पाप से निवृत हो गया है। ‘जो मनुष्‍य हत्‍या के लिये पशु लाता है, जो उसे मारने की अनुमति देता है, जो उसका वध करता है तथा जो खरीदता, बेचता, पकाता और खाता है, वे सब-के-सब खाने वाले ही माने जाते हैं। अर्थात वे सब खाने वाले के समान ही पाप के भागी होते हैं। अब मैं इस विषय में एक दूसरा प्रमाण बता रहा हूँ, जो साक्षात ब्रह्मा जी के द्वारा प्रतिपादित, पुरातन, ऋर्षियों द्वारा सेवित तथा वेदों में प्रतिष्ठित है।

मद्य और मांस भक्षण के त्याग की महिमा

नृपश्रेष्‍ठ! प्रजार्थी पुरुषों ने प्रवृतिरुप धर्म का प्रतिपादन किया है, परन्‍तु वह मोक्ष की अभिलाषा रखने वाले विकृत पुरुषें के लिये अभिष्‍ट नहीं है। जो मनुष्‍य अपने आप को अत्‍यन्‍त उपद्रव रहित बनायें रखना चाहता हो, वह इस जगत में प्राणियों के मांस का सर्वथा परित्‍याग कर दे। सुना है पूर्वकल्‍प में मनुष्‍यों के यज्ञ में पुरोडाश आदि के रुप में अन्‍न मय पशु का ही उपयोग होता था। पुण्‍य लोक की प्राप्ति के साधनों में लगे रहने वाले याज्ञिक पुरुष उस अन्‍न के द्वारा ही यज्ञ करते थे।[3] प्रभो! प्राचीन काल में ऋषियों ने चेदिराज वसु से अपना संदेह पूछा था।[4] उस समय वसु ने मांस को भी जो सर्वथा अभक्ष्‍य है, भक्ष्‍य बता दिया। उस समय आकशचारी राजा वसु अनुचित निर्णय देने के कारण आकाश से पृथ्‍वी पर गिर पड़े तदनन्‍तर पृथ्‍वी पर भी फिर यही निर्णय देने के कारण वे पाताल में समा गये। निष्‍पाप राजेन्‍द्र! मनुजेश्‍वर! मेरी कही हुई यह बात भी सुनो- मांस-भक्षण न करने से सब प्रकार का सुख मिलता है। जो मनुष्‍य सौ वर्षो तक कठोर तपस्‍या करता है तथा जो केवल मांस का परित्‍याग कर देता है- ये दोनों मेरी दृष्टि में एक समान हैं। नरेश्‍वर! विशेषत: शरदतऋतु, शुक्‍ल पक्ष में मद्य और मांस का सर्वथा त्‍याग कर दे, क्‍योंकि ऐसा करने में धर्म होता है। जो मनुष्‍य वर्षा के चार महीनों में मांस का परित्‍याग कर देता है, वह चार कल्‍याणमयी वस्‍तुओं-कीर्ति, आयु, यश और बल को प्राप्‍त कर लेता है। अथवा एक महीने तक सब प्रकार के मांसों का त्‍याग करने वाला पुरुष सम्‍पूर्ण दु:खो से पार हो सुखी एवं नीरोग जीवन व्‍यतीत करता है। जो एक-एक मास अथवा एक-एक पक्ष तक मांस खाना छोड देते हैं, हिंसा से दूर हटे हुए उन मनुष्‍यों को ब्रह्मलोंक की प्राप्ति होती है।[5]

कुन्‍तीनन्‍दन! जिन राजाओं ने आश्विन मास के दोनों पक्ष अथवा एक पक्ष में मांस भक्षण का निषेध किया था, वे सम्‍पूर्ण भूतों के आत्‍मारुप हो गये थे और उन्‍हें परावर तत्‍व का ज्ञान हो गया थ। उनके नाम इस प्रकार है-नाभाग, अम्‍बरीष, महात्‍मा गय, आयु, अनरण्‍य, दिलीप रघु, पूरू, कार्तवीर्य, अनिरुद्ध, नहुष, ययाति, नृग, विश्‍वगश्‍व, शशविन्‍दु, युवनाश्‍व, उशीनर पुत्र शिबि, मुचुकुन्‍द, मान्‍धता अथवा हरिश्‍चन्‍द्रसत्‍य बोलो, असत्‍य न बोला, सत्‍य ही सनातन धर्म है। राजा हरिश्चंद्र सत्‍य के प्रभाव से आकाश में चन्‍द्रमा के समान विचरते हैं। राजेन्‍द्र! श्येनचित्र, सोमक, वृक, रैवत, रन्तिदेव, वसु, सृंजक, अन्‍यान्‍य नेश, कृप, भरत, दुष्‍यन्‍त, करुष, राम, अलर्क, नर, विरूपाश्व, निमि, बुद्धिमान, जनक, पुरुरवा, पृथु, वीरसेन, इक्ष्‍वाकु, शम्‍भु, श्वेतसागर, अज, धुन्‍धु, सुबाहु, हर्यश्व क्षुप भरत- इन सब ने तथा अन्‍यान्‍य राजाओं ने भी कभी मांस नहीं खाया था। वे सब नरेश अपनी कान्ति से प्रज्‍वलित होते हुए वहॉं ब्रह्मलोक में विराज रहे हैं, गन्‍धर्व उनकी उपासना करते है और सहस्‍त्रों दिव्‍यांगनाएँ उन्हें घेरे रहती हैं। अत: यह अहिंसा रुप धर्म सब धर्मो से उत्तम है। जो महात्‍मा इसका आचरण करते हैं वे स्‍वर्गलोक में निवास करते हैं। जो धर्मात्‍मा पुरुष जन्म से ही इस जगत में शहद मद्य और मांस का सदा के लिये परित्‍याग कर देते हैं वे सब–के-सब मुनि माने गये हैं। जो मांस-भक्षण के परित्‍याग रुप इस धर्म का आचरण करता अथवा इसे दूसरों को सुनाता है वह कितना ही दुराचारी क्‍यों न रहा हो नरक में नहीं पड़ता। राजन! जो ऋषियों द्वारा सम्‍मानित एवं पवित्र इस मांस-भक्षण के त्‍याग के प्रकारण को पढ़ता अथवा बारंबार सुनता है, वह सब पापों से मुक्‍त हो सम्‍पूर्ण मनोवांछित भोगो द्वारा सम्‍मानित होता है और अपने सजातीय बन्‍धुओं में विशिष्‍ट स्‍थान प्राप्‍त कर लेता है, इसमें संशय नहीं है। इतना ही नहीं, इसके श्रवण अथवा पठन से आपति में पड़ा हुआ आपत्ति से, बन्‍धन में बँधा हुआ बन्‍धन से, रोगी रोग से और दुखी से छुटकारा पा जाता है। कुरुश्रेष्‍ठ! इसके प्रभाव से मनुष्‍य तिर्यग्योनि में नहीं पड़ता तथा उसे सुन्‍दर रुप, सम्‍पति और महान यश की प्राप्‍ति हेाती है। राजन! यह मैंने तुम्‍हें ऋषियों द्वारा निर्मित मांस-त्‍याग का विधान तथा प्रवृति विषयक धर्म भी बताया है।[4]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 115 श्लोक 1-16
  2. 2.0 2.1 महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 115 श्लोक 17-32
  3. 3.0 3.1 महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 115 श्लोक 33-49
  4. 4.0 4.1 महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 115 श्लोक 50-76
  5. फिर जो कभी भी मांस नहीं खाते, उनके लाभ की तो कोई सीमा ही नहीं है।

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दान-धर्म-पर्व
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द्वारा मतंग को समझाना | मतंग की तपस्या और इन्द्र का उसे वरदान | वीतहव्य के पुत्रों से काशी नरेशों का युद्ध | प्रतर्दन द्वारा वीतहव्य के पुत्रों का वध | वीतहव्य को ब्राह्मणत्व प्राप्ति की कथा | नारद द्वारा पूजनीय पुरुषों के लक्षण | नारद द्वारा पूजनीय पुरुषों के आदर-सत्कार से होने वाले लाभ का वर्णन | वृषदर्भ द्वारा शरणागत कपोत की रक्षा | वृषदर्भ को पुण्य के प्रभाव से अक्षयलोक की प्राप्ति | भीष्म द्वारा यूधिष्ठिर से ब्राह्मण के महत्त्व का वर्णन | भीष्म द्वारा श्रेष्ठ ब्राह्मणों की प्रशंसा | ब्रह्मा द्वारा ब्राह्मणों की महत्ता का वर्णन | ब्राह्मण प्रशंसा विषयक इन्द्र और शम्बरासुर का संवाद | दानपात्र की परीक्षा | पंचचूड़ा अप्सरा का नारद से स्त्री दोषों का वर्णन | युधिष्ठिर के स्त्रियों की रक्षा के विषय में प्रश्न | भृगुवंशी विपुल द्वारा योगबल से गुरुपत्नी की रक्षा | विपुल का देवराज इन्द्र से गुरुपत्नी को बचाना | विपुल को गुरु देवशर्मा से वरदान की प्राप्ति | विपुल को दिव्य पुष्प की प्राप्ति और चम्पा नगरी को प्रस्थान | विपुल का अपने द्वारा किये गये दुष्कर्म का स्मरण करना | देवशर्मा का विपुल 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शाप | तारकासुर के भय से देवताओं का ब्रह्मा की शरण में जाना | ब्रह्मा का देवताओं को आश्वासन | देवताओं द्वारा अग्नि की खोज | गंगा का शिवतेज को धारण करना और फिर मेरुपर्वत पर छोड़ना | कार्तिकेय और सुवर्ण की उत्पत्ति | महादेव के यज्ञ में अग्नि से प्रजापतियों और सुवर्ण की उत्पत्ति | कार्तिकेय की उत्पत्ति और उनका पालन-पोषण | कार्तिकेय का देवसेनापति पद पर अभिषेक और तारकासुर का वध | विविध तिथियों में श्राद्ध करने का फल | श्राद्ध में पितरों के तृप्ति विषय का वर्णन | विभिन्न नक्षत्रों में श्राद्ध करने का फल | पंक्तिदूषक ब्राह्मणों का वर्णन | पंक्तिपावन ब्राह्मणों का वर्णन | श्राद्ध में मूर्ख ब्राह्मण की अपेक्षा वेदवेत्ता को भोजन कराने की श्रेष्ठता | निमि का पुत्र के निमित्त पिण्डदान | श्राद्ध के विषय में निमि को अत्रि का उपदेश | विश्वेदेवों के नाम तथा श्राद्ध में त्याज्य वस्तुओं का वर्णन | पितर और देवताओं का श्राद्धान्न से अजीर्ण होकर ब्रह्मा के पास जाना | श्राद्ध से तृप्त हुए पितरों का आशीर्वाद | भीष्म का युधिष्ठिर को गृहस्थ के धर्मों का रहस्य बताना | वृषादर्भि तथा सप्तर्षियों की कथा | भिक्षुरूपधरी इन्द्र द्वारा कृत्या का वध तथा सप्तर्षियों की रक्षा | इन्द्र द्वारा कमलों की चोरी तथा धर्मपालन का संकेत | अगस्त्य के कमलों की चोरी तथा ब्रह्मर्षियों और राजर्षियों की धर्मोपदेशपूर्ण शपथ | इन्द्र का चुराये हुए कमलों को वापस देना | सूर्य की प्रचण्ड धूप से रेणुका के मस्तक और पैरों का संतप्त होना | जमदग्नि का सूर्य पर कुपित होना | छत्र और उपानह की उत्पत्ति एवं दान की प्रशंसा | गृहस्थधर्म तथा पंचयज्ञ विषयक पृथ्वीदेवी और श्रीकृष्ण का संवाद | तपस्वी सुवर्ण और मनु का संवाद | नहुष का ऋषियों पर अत्याचार | महर्षि भृगु और अगस्त्य का वार्तालाप | नहुष का पतन | शतक्रतु का इन्द्रपद पर अभिषेक तथा दीपदान की महिमा | ब्राह्मण के धन का अपहरण विषयक क्षत्रिय और चांडाल का संवाद | ब्रह्मस्व की रक्षा में प्राणोत्सर्ग से चांडाल को मोक्ष की प्राप्ति | धृतराष्ट्ररूपधारी इन्द्र और गौतम ब्राह्मण का संवाद | ब्रह्मा और भगीरथ का संवाद | आयु की वृद्धि और क्षय करने वाले शुभाशुभ कर्मों का वर्णन | गृहस्थाश्रम के कर्तव्यों का विस्तारपूर्वक निरूपण | बड़े और छोटे भाई के पारस्परिक बर्ताव का वर्णन | माता-पिता, आचार्य आदि गुरुजनों के गौरव का वर्णन | मास, पक्ष एवं तिथि सम्बंधी विभिन्न व्रतोपवास के फल का वर्णन | दरिद्रों के लिए यज्ञतुल्य फल देने वाले उपवास-व्रत तथा उसके फल का वर्णन | मानस तथा पार्थिव तीर्थ की महत्ता | द्वादशी तिथि को उपवास तथा विष्णु की पूजा का माहात्म्य | मार्गशीर्ष मास में चन्द्र व्रत करने का प्रतिपादन | बृहस्पति और युधिष्ठिर का संवाद | विभिन्न पापों के फलस्वरूप नरकादि की प्राप्ति एवं तिर्यग्योनियों में जन्म लेने का वर्णन | पाप से छूटने के उपाय तथा अन्नदान की विशेष महिमा | बृहस्पति का युधिष्ठिर को अहिंसा एवं धर्म की महिमा बताना | हिंसा और मांसभक्षण की घोर निन्दा | मद्य और मांस भक्षण के दोष तथा उनके त्याग की महिमा | मांस न खाने से लाभ तथा अहिंसाधर्म की प्रशंसा | द्वैपायन व्यास और एक कीड़े का वृत्तान्त | कीड़े का क्षत्रिय योनि में जन्म तथा व्यासजी का दर्शन | कीड़े का ब्राह्मण योनि में जन्म तथा सनातनब्रह्म की प्राप्ति | दान की प्रशंसा और कर्म का रहस्य | विद्वान एवं सदाचारी ब्राह्मण को अन्नदान की प्रशंसा | तप की प्रशंसा तथा गृहस्थ के उत्तम कर्तव्य का निर्देश | पतिव्रता स्त्रियों के कर्तव्य का वर्णन | नारद का पुण्डरीक को भगवान नारायण की आराधना का उपदेश | ब्राह्मण और राक्षस का सामगुण विषयक वृत्तान्त | श्राद्ध के विषय में देवदूत और पितरों का संवाद | पापों से छूटने के विषय में महर्षि विद्युत्प्रभ और इन्द्र का संवाद | धर्म के विषय में इन्द्र और बृहस्पति का संवाद | वृषोत्सर्ग आदि के विषय में देवताओं, ऋषियों और पितरों का संवाद | विष्णु, देवगण, विश्वामित्र और ब्रह्मा आदि द्वारा धर्म के गूढ़ रहस्य का वर्णन | अग्नि, लक्ष्मी, अंगिरा, गार्ग्य, धौम्य तथा जमदग्नि द्वारा धर्म के गूढ़ रहस्य का वर्णन | वायु द्वारा धर्माधर्म के रहस्य का वर्णन | लोमश द्वारा धर्म के रहस्य का वर्णन | अरुन्धती, धर्मराज और चित्रगुप्त द्वारा धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन | प्रमथगणों द्वारा धर्माधर्म सम्बन्धी रहस्य का कथन | दिग्गजों का धर्म सम्बन्धी रहस्य एवं प्रभाव | महादेव जी का धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन | स्कन्ददेव का धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन | भगवान विष्णु और भीष्म द्वारा धर्म सम्बन्धी रहस्यों के माहात्म्य का वर्णन | जिनका अन्न ग्रहण करने योग्य है और जिनका ग्रहण करने योग्य नहीं है, उन मनुष्यों का वर्णन | दान लेने और अनुचित भोजन करने का प्रायश्चित | दान से स्वर्गलोक में जाने वाले राजाओं का वर्णन | पाँच प्रकार के दानों का वर्णन | तपस्वी श्रीकृष्ण के पास ऋषियों का आना | ऋषियों का श्रीकृष्ण का प्रभाव देखना और उनसे वार्तालाप करना | नारद द्वारा हिमालय पर शिव की शोभा का विस्तृत वर्णन | शिव के तीसरे नेत्र से हिमालय का भस्म होना | शिव-पार्वती के धर्म-विषयक संवाद की उत्थापना | वर्णाश्रम सम्बन्धी आचार | प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप धर्म का निरूपण | वानप्रस्थ धर्म तथा उसके पालन की विधि और महिमा | ब्राह्मणादि वर्णों की प्राप्ति में शुभाशुभ कर्मों की प्रधानता का वर्णन | बन्धन मुक्ति, स्वर्ग, नरक एवं दीर्घायु और अल्पायु प्रदान करने वाले कर्मों का वर्णन | स्वर्ग और नरक प्राप्त कराने वाले कर्मों का वर्णन | उत्तम और अधम कुल में जन्म दिलाने वाले कर्मों का वर्णन | मनुष्य को बुद्धिमान, मन्दबुद्धि तथा नपुंसक बनाने वाले कर्मों का वर्णन | राजधर्म का वर्णन | योद्धाओं के धर्म का वर्णन | रणयज्ञ में प्राणोत्सर्ग की महिमा | संक्षेप से राजधर्म का वर्णन | अहिंसा और इन्द्रिय संयम की प्रशंसा | दैव की प्रधानता | त्रिवर्ग का निरूपण | कल्याणकारी आचार-व्यवहार का वर्णन | विविध प्रकार के कर्मफलों का वर्णन | अन्धत्व और पंगुत्व आदि दोषों और रोगों के कारणभूत दुष्कर्मों का वर्णन | उमा-महेश्वर संवाद में महत्त्वपूर्ण विषयों का विवेचन | प्राणियों के चार भेदों का निरूपण | पूर्वजन्म की स्मृति का रहस्य | मरकर फिर लौटने में कारण स्वप्नदर्शन | दैव और पुरुषार्थ तथा पुनर्जन्म का विवेचन | यमलोक तथा वहाँ के मार्गों का वर्णन | पापियों की नरकयातनाओं का वर्णन | कर्मानुसार विभिन्न योनियों में पापियों के जन्म का उल्लेख | शुभाशुभ आदि तीन प्रकार के कर्मों का स्वरूप और उनके फल का वर्णन | मद्यसेवन के दोषों का वर्णन | पुण्य के विधान का वर्णन | व्रत धारण करने से शुभ फल की प्राप्ति | शौचाचार का वर्णन | आहार शुद्धि का वर्णन | मांसभक्षण से दोष तथा मांस न खाने से लाभ | गुरुपूजा का महत्त्व | उपवास की विधि | तीर्थस्थान की विधि | सर्वसाधारण द्रव्य के दान से पुण्य | अन्न, सुवर्ण और गौदान का माहात्म्य | भूमिदान के महत्त्व का वर्णन | कन्या और विद्यादान का माहात्म्य | तिल का दान और उसके फल का माहात्म्य | नाना प्रकार के दानों का फल | लौकिक-वैदिक यज्ञ तथा देवताओं की पूजा का निरूपण | श्राद्धविधान आदि का वर्णन | दान के पाँच फल | अशुभदान से भी शुभ फल की प्राप्ति | नाना प्रकार के धर्म और उनके फलों का प्रतिपादन | शुभ और अशुभ गति का निश्चय कराने वाले लक्षणों का वर्णन | मृत्यु के भेद | कर्तव्यपालनपूर्वक शरीरत्याग का महान फल | काम, क्रोध आदि द्वारा देहत्याग करने से नरक की प्राप्ति | मोक्षधर्म की श्रेष्ठता का प्रतिपादन | मोक्षसाधक ज्ञान की प्राप्ति का उपाय | मोक्ष की प्राप्ति में वैराग्य की प्रधानता | सांख्यज्ञान का प्रतिपादन | अव्यक्तादि चौबीस तत्त्वों की उत्पत्ति आदि का वर्णन | योगधर्म का प्रतिपादनपूर्वक उसके फल का वर्णन | पाशुपत योग का वर्णन | शिवलिंग-पूजन का माहात्म्य | पार्वती के द्वारा स्त्री-धर्म का वर्णन | वंश परम्परा का कथन और श्रीकृष्ण के माहात्म्य का वर्णन | श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन और भीष्म का युधिष्ठिर को राज्य करने का आदेश | श्रीविष्णुसहस्रनामस्तोत्रम् | जपने योग्य मंत्र और सबेरे-शाम कीर्तन करने योग्य देवता | ऋषियों और राजाओं के मंगलमय नामों का कीर्तन-माहात्म्य | गायत्री मंत्र का फल | ब्राह्मणों की महिमा का वर्णन | कार्तवीर्य अर्जुन को वरदान प्राप्ति और उनमें अभिमान की उत्पत्ति का वर्णन | ब्राह्मणों की महिमा विषयक कार्तवीय अर्जुन और वायु देवता का संवाद | वायु द्वारा उदाहरण सहित ब्राह्मणों की महत्ता का वर्णन | ब्राह्मणशिरोमणि उतथ्य के प्रभाव का वर्णन | ब्रह्मर्षि अगस्त्य और वसिष्ठ के प्रभाव का वर्णन | अत्रि और च्यवन ऋषि के प्रभाव का वर्णन | कप दानवों का स्वर्गलोक पर अधिकार | ब्राह्मणों द्वारा कप दानवों को भस्म करना | भीष्म द्वारा श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन | श्रीकृष्ण का प्रद्युम्न को ब्राह्मणों की महिमा बताना | श्रीकृष्ण द्वारा दुर्वासा के चरित्र का वर्णन करना | श्रीकृष्ण द्वारा भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन | भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन | धर्म के विषय में आगम-प्रमाण की श्रेष्ठता | भीष्म द्वारा धर्माधर्म के फल का वर्णन | साधु-असाधु के लक्षण तथा शिष्टाचार का निरूपण | युधिष्ठिर का विद्या, बल और बुद्धि की अपेक्षा भाग्य की प्रधानता बताना | भीष्म का शुभाशुभ कर्मों को ही सुख-दु:ख की प्राप्ति का कारण बताना | नित्यस्मरणीय देवता, नदी, पर्वत, ऋषि और राजाओं के नाम-कीर्तन का माहात्म्य | भीष्म की अनुमति से युधिष्ठिर का सपरिवार हस्तिनापुर प्रस्थान
भीष्मस्वर्गारोहण पर्व
भीष्म के अन्त्येष्टि संस्कार की सामग्री लेकर युधिष्ठिर आदि का आगमन | भीष्म का धृतराष्ट्र और युधिष्ठिर को कर्तव्य का उपदेश देना | भीष्म का श्रीकृष्ण आदि से देहत्याग की अनुमति लेना | भीष्म का प्राणत्याग | धृतराष्ट्र द्वारा भीष्म का दाह संस्कार | गंगा का भीष्म के लिए शोक प्रकट करना और श्रीकृष्ण का उन्हें समझाना

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