अरुन्धती, धर्मराज और चित्रगुप्त द्वारा धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन

महाभारत अनुशासन पर्व के दानधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 130 में अरुन्धती, धर्मराज और चित्रगुप्त द्वारा धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन हुआ है।[1]

भीष्म का संवाद

वैशम्पायन जी कहते हैं जनमेजय! भीष्म जी ने कहते हैं- युधिष्ठिर! तदनन्‍तर सभी ऋषियों, पितरों और देवताओं ने तपस्‍या में बढ़ी-चढ़ी हुई अरून्‍धती देवी से, जो शील और शक्ति में महात्‍मा वसिष्‍ठ के ही समान थी, एकाग्रचित्त होकर पूछा- ‘भद्रे! हम आपके मुंह से धर्म का रहस्‍य सुनना चाहते हैं। आपकी दृष्टि में जो गुहमतम धर्म हो, उसे बताने की कृपा करें।

अरुन्धती द्वारा सनातन धर्म का वर्णन

अरुन्धती बोली- देवगण आप लोगो ने मुझे स्‍मरण किया, इससे मेरे तप‍की वृद्धि हुई है। अब मैं आप ही लोगों की गोंपनीय रहस्‍य सहित सनातन धर्मों का वर्णन करती हूं, आप लोग वह सब सुनें। जिसका मन शुद्ध हो, उस श्रद्धालू पुरुषो को ही इन धर्मों का उपदेश करना चाहिए। जो श्रद्धा से रहित, अभिमानी, ब्रह्महत्‍यारे ओर गुरुस्‍त्रगामी हैं, इन चार प्रकार के मनुष्‍यों से बात भी नहीं करनी चाहिए। इनकें सामने धर्म के रहस्‍य को प्रकाशित न करें। जो मनुष्‍य बारह वर्षों तक प्रतिदिन एक एक कपिला गौ का दान करता है, हर महीने में निरन्‍तर सत्रयोंग चलाता और ज्‍येष्‍ठ पुष्‍कर तीर्थ में जाकर एक लाख गौ दान करता है, उसके घर्म का फल उस मनुष्‍य के बराबर नहीं हो सकता, जिसके द्वारा की हुई सेवा से अतिथि संतुष्‍ट हो जाता है। अब मनुष्‍यों के लिये सुखदायक तथा महान फल देने वाले दूसरे धर्म का रहस्‍य सहित वर्णन सुनो। श्रद्धापूर्वक इसका पालन करना चाहिये। सबेरे उठकर कुश और जल हाथ में ले गौओं के बीच में जाय। वहाँ गौओं के सींग पर जल छिड़के और सींग से गिरे हुए जल को अपने मस्‍तक पर धारण करे। साथ ही उस दिन निराहार रहे। ऐसे पुरुषो को जो धर्म का फल मिलता है, उसे सुनो। तीनों लोकों में सिद्ध, चारण और महर्षियों से सेवित जो कोई भी तीर्थ सुने जाते हैं, उन सब में स्‍नान करनें से जो फल मिलता है वही गायों के सींग के जल से अपने मस्‍तक को सीचने से प्राप्‍त होता है। यह सुनकर देवता, पितर और समस्‍त प्राणी बहुत प्रसन्‍न हुए। उन सबने उन्‍हें साधुवाद दिया और अरून्‍धती देवी की भूरी–भूरी प्रशंसा की। महाभागे तुम धन्‍य हो, तुमने रहस्‍य सहित अद्भुत धर्म का वर्णन किया हैं। मैं तुम्‍हें वरदान देता हूं, तुम्‍हारी तपस्‍या सदा बढ़ती रहे।

धर्मराज और चित्रगुप्त द्वारा धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन

यमराज ने कहा- देवताओ और महर्षियों मैंने आप लोंगो के मुख से दिव्‍य मनोरम कथा सुनी है, अब आप लोग चित्रगुप्‍त का तथा मेरा भी प्रिय भाषण सुनिये। इस धर्मयुक्‍त रहस्‍य को महर्षि भी सुन सकते हैं। अपना हित चाहने वाले श्रद्धालु मनुष्‍य को भी इसे श्रवण करना चाहिये। मनुष्‍य किया हुआ कोई भी पुण्‍य तथा भोग के बिना नष्‍ट नहीं होता। पूर्वकाल मे कुछ भी दान किया जाता है, वह सब सूर्यदेव के पास पहुँचता है। जब मनुष्‍य प्रेतलोक को जाता है, उस समय सूर्यदेव वे सारी वस्‍तुएं उसे अर्पित कर देते हैं और पुण्‍यात्‍मा पुरुष परलोक में उन वस्‍तुओं का उपभोग करता है। अ‍ब मैं चित्रगुप्‍त के मत के अनुसार कुछ कल्‍याण्‍कारी धर्म का वर्णन करता हूँ। मनुष्‍य को जलदान और दीप दान सदा ही करने चाहिए।[1] उपानह (जूता), छत्र तथा कपिला गौ का भी यथोचित रीति से दान करना चाहिए। पुष्‍कर तीर्थ में वेदों के पांरगत विद्वान ब्राह्मण को कपिला गाय देनी चाहिए और अग्नि होत्र के नियम का सब तरह से प्रयत्‍न पूर्वक पालन करना चाहिए।[2] इसके सिवा यह एक दूसरा धर्म भी चित्रगुप्‍त ने बताया है। उसके पृथक-पृथक फल का वर्णन सभी साधुपुरुष सुने। समस्‍त प्राणीकाल काल क्रम से प्रलय को प्राप्‍त होते हैं। पापों के कारण दुर्गम नरक में पड़ें हुए प्राणी भूंख-प्‍यास से पीड़ित हो आग में जलते हूए पकाये जाते हैं। वहाँ उस याताना से निकल भागने का कोई उपाय नहीं है। मन्‍दबुद्धि मनुष्‍य ही नरक के घोर दुखमय अन्‍धकार में प्रवेश करते हैं। उस अवसर के लिये मैं धर्म उपदेश करता हूं, जिससे मनुष्‍य दुर्गम नरक से पार हो सकता है। उस धर्म में व्‍यय बहुत थोड़ा हैं, परंतु लाभ महान है। उससे मृत्‍यु के पश्चात् भी उत्तम सुख की प्राप्ति होती है। जल के गुण दिव्‍य हैं।

प्रेतलोक में ये गुण विशेष रूप से लक्षित होते हैं। वहाँ पुण्‍योद का नाम से प्रसिद्ध नदी है, जो यमलोक निवासियों के लिए विहित है। उसमें अमृत के समान मधुर, शीतल एवं अक्षय जल भरा रहता है। जो यहाँ जलदान करता है, वहीं परलोक में जाने पर उस नदी का जल पीता है। अब दीप दान से जो अधिकाधिक लाभ होता है, उसको सुनों। दीप दान करने वाला मनुष्‍य नरक के नियत अन्‍धकार का दर्शन नहीं करता है। उसे चन्‍द्रमा, सूर्य और अग्नि प्रकाश देते रहते हैं। देवता भी दीप दान करने वाले का आदर करते हैं। उसके लिए सम्‍पूर्ण दिशाएं निर्मल होती हैं तथा प्रेतलोक में जाने पर वह मनुष्‍य सूर्य के समान प्रकाशित होता है। इसलिए विशेष यत्‍न करके दीप और जल का दान करना चाहिए। विशेषत: पुष्‍कर तीर्थ में जो वेदों के पारंगत विद्वान ब्राह्मण को कपिला दान करते है, उन्‍हें उस दान का जो फल मिलता है, उसे सुनो। उसे सांडों- सहित सौ गौऔं के दान का शाश्वत फल प्राप्‍त होता है। ब्रह्म हत्‍या के समान जो कोई पाप होता हे, उसे एकमात्र कपिला का दान शुद्ध कर देता हैं। वह एक ही गोदान सौ गोदानों के बराबर है। इसलिए ज्‍येष्‍ठ पुष्‍कर तीर्थ कार्तिक की पूर्णिमा को अवश्य कपिला गौ का दान करना चाहिये। जो श्रेष्‍ठ एवं सुपात्र ब्राह्मण को उपानह (जूता) दान करता है, उसके लिये कहीं कोई विषम स्‍थान नहीं हैं। न उसे दु:ख उठाना पड़ता है और न कांटों का ही सामना करना पड़ता है। छत्र-दान करने से परलोक में जाने पर दाता को सुखदायिनि छाया सुलभ होती हैं। इस लोक में दिये हुए दान का कभी नाश नहीं होता। चित्रगुप्‍त यह मत सुनकर भगवान सूर्य के शरीर में रोमांचहो आया।

सूर्य देवता का संवाद

उन महोतेजस्‍वी सूर्य ने सम्‍पूर्ण देवताओं ओैर पितरों से कहो- ‘आप लोगों ने महामना चित्रगुप्‍त के धर्म विषयक गुप्‍त रहस्‍य को सुन लिया। जो मनुष्‍य महामनस्‍वी ब्राह्मणों पर श्रद्धा करके यह दान देते है, उन्‍हें भय नहीं होता। आगे बताये जाने वाले पांच धर्म विषयक दोष जिनमें विधमान है, उनका यहाँ कभी उद्धार नहीं होता। ऐेसे अनाचारी नराधमों से बात नही करनी चाहिऐ। उन्‍हें दूर से ही त्‍याग देना चाहियें। ब्रह्महत्‍यारा, गोहत्‍या करने वाला, पर स्‍त्रीलम्‍प, अश्रद्धालु तथा जो स्‍त्री पर निर्भर रहकर जीविका चलाता है- ये ही पूर्वोक्‍त पांच प्रकार के दुराचारी हैं। ये पापी कर्मी मनुष्‍य प्रेतलोक में जाकर नरक की आग में मछलियों की तरह पकाये जाते हैं ओर पीब तथा रक्‍त भोजन करते हैं। इन पांचों पापाचारियों से देवताओं, पितरों, स्‍नातक ब्राह्मणों तथा अन्‍यान्‍य तपोधनों को बातचीत भी नहीं करनी चाहिए।[2]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 130 श्लोक 1-18
  2. 2.0 2.1 महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 130 श्लोक 19-40

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प्रधानता | त्रिवर्ग का निरूपण | कल्याणकारी आचार-व्यवहार का वर्णन | विविध प्रकार के कर्मफलों का वर्णन | अन्धत्व और पंगुत्व आदि दोषों और रोगों के कारणभूत दुष्कर्मों का वर्णन | उमा-महेश्वर संवाद में महत्त्वपूर्ण विषयों का विवेचन | प्राणियों के चार भेदों का निरूपण | पूर्वजन्म की स्मृति का रहस्य | मरकर फिर लौटने में कारण स्वप्नदर्शन | दैव और पुरुषार्थ तथा पुनर्जन्म का विवेचन | यमलोक तथा वहाँ के मार्गों का वर्णन | पापियों की नरकयातनाओं का वर्णन | कर्मानुसार विभिन्न योनियों में पापियों के जन्म का उल्लेख | शुभाशुभ आदि तीन प्रकार के कर्मों का स्वरूप और उनके फल का वर्णन | मद्यसेवन के दोषों का वर्णन | पुण्य के विधान का वर्णन | व्रत धारण करने से शुभ फल की प्राप्ति | शौचाचार का वर्णन | आहार शुद्धि का वर्णन | मांसभक्षण से दोष तथा मांस न खाने से लाभ | गुरुपूजा का महत्त्व | उपवास की विधि | तीर्थस्थान की विधि | सर्वसाधारण द्रव्य के दान से पुण्य | अन्न, सुवर्ण और गौदान का माहात्म्य | भूमिदान के महत्त्व का वर्णन | कन्या और विद्यादान का माहात्म्य | तिल का दान और उसके फल का माहात्म्य | नाना प्रकार के दानों 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महिमा का वर्णन | कार्तवीर्य अर्जुन को वरदान प्राप्ति और उनमें अभिमान की उत्पत्ति का वर्णन | ब्राह्मणों की महिमा विषयक कार्तवीय अर्जुन और वायु देवता का संवाद | वायु द्वारा उदाहरण सहित ब्राह्मणों की महत्ता का वर्णन | ब्राह्मणशिरोमणि उतथ्य के प्रभाव का वर्णन | ब्रह्मर्षि अगस्त्य और वसिष्ठ के प्रभाव का वर्णन | अत्रि और च्यवन ऋषि के प्रभाव का वर्णन | कप दानवों का स्वर्गलोक पर अधिकार | ब्राह्मणों द्वारा कप दानवों को भस्म करना | भीष्म द्वारा श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन | श्रीकृष्ण का प्रद्युम्न को ब्राह्मणों की महिमा बताना | श्रीकृष्ण द्वारा दुर्वासा के चरित्र का वर्णन करना | श्रीकृष्ण द्वारा भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन | भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन | धर्म के विषय में आगम-प्रमाण की श्रेष्ठता | भीष्म द्वारा धर्माधर्म के फल का वर्णन | साधु-असाधु के लक्षण तथा शिष्टाचार का निरूपण | युधिष्ठिर का विद्या, बल और बुद्धि की अपेक्षा भाग्य की प्रधानता बताना | भीष्म का शुभाशुभ कर्मों को ही सुख-दु:ख की प्राप्ति का कारण बताना | नित्यस्मरणीय देवता, नदी, पर्वत, ऋषि और राजाओं के नाम-कीर्तन का माहात्म्य | भीष्म की अनुमति से युधिष्ठिर का सपरिवार हस्तिनापुर प्रस्थान
भीष्मस्वर्गारोहण पर्व
भीष्म के अन्त्येष्टि संस्कार की सामग्री लेकर युधिष्ठिर आदि का आगमन | भीष्म का धृतराष्ट्र और युधिष्ठिर को कर्तव्य का उपदेश देना | भीष्म का श्रीकृष्ण आदि से देहत्याग की अनुमति लेना | भीष्म का प्राणत्याग | धृतराष्ट्र द्वारा भीष्म का दाह संस्कार | गंगा का भीष्म के लिए शोक प्रकट करना और श्रीकृष्ण का उन्हें समझाना

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