त्रिशदधिकशततम (130) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
महाभारत: अनुशासन पर्व: त्रिशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 19-40 का हिन्दी अनुवाद
समस्त प्राणी कालक्रम से प्रलय को प्राप्त होते हैं। पापों के कारण दुर्गम नरक में पड़े हुए प्राणी भूख-प्यास से पीड़ित हो आग में जलते हुए पकाये जाते हैं। वहाँ उस यातना से निकल भागने का कोई उपाय नहीं है। मन्दबुद्धि मनुष्य ही नरक के घोर दु:खमय अन्धकार में प्रवेश करते हैं। उस अवसर के लिये मैं धर्म का उपदेश करता हूँ, जिससे मनुष्य दुर्गम नरक से पार हो सकता है। उस धर्म में व्यय बहुत थोड़ा है, परंतु लाभ महान है। उससे मृत्यु के पश्चात भी उत्तम सुख की प्राप्ति होती है। जल के गुण दिव्य हैं। प्रेतलोक में ये गुण विशेष रूप से लक्षित होते हैं। वहाँ पुण्योदका नाम से प्रसिद्ध नदी है, जो यमलोक के निवासियों के लिए विहित है। उसमें अमृत के समान मधुर, शीतल एवं अक्षय जल भरा रहता है। जो यहाँ जलदान करता है, वही परलोक में जाने पर उस नदी का जल पीता है। अब दीपदान से जो अधिकाधिक लाभ होता है, उसको सुनो। दीपदान करने वाला मनुष्य नरक के नियत अन्धकार का दर्शन नहीं करता है। उसे चन्द्रमा, सूर्य और अग्नि प्रकाश देते रहते हैं। देवता भी दीपदान करने वाले का आदर करते हैं। उसके लिए सम्पूर्ण दिशाएं निर्मल होती हैं तथा प्रेतलोक में जाने पर वह मनुष्य सूर्य के समान प्रकाशित होता है। इसलिए विशेष यत्न करके दीप और जल का दान करना चाहिए। विशेषत: पुष्कर तीर्थ में जो वेदों के पारंगत विद्वान ब्राह्मण को कपिला दान करते हैं, उन्हें उस दान का जो फल मिलता है, उसे सुनो। उसे सांड़ों सहित सौ गौऔं के दान का शाश्वत फल प्राप्त होता है। ब्रह्महत्या के समान जो कोई पाप होता है, उसे एकमात्र कपिला का दान शुद्ध कर देता हैं। वह एक ही गोदान सौ गोदानों के बराबर है। इसलिए ज्येष्ठ पुष्कर तीर्थ कार्तिक की पूर्णिमा को अवश्य कपिला गौ का दान करना चाहिये। जो श्रेष्ठ एवं सुपात्र ब्राह्मण को उपानह (जूता) दान करता है, उसके लिये कहीं कोई विषम स्थान नहीं है। न उसे दु:ख उठाना पड़ता है और न कांटों का ही सामना करना पड़ता है। छत्रदान करने से परलोक में जाने पर दाता को सुखदायिनि छाया सुलभ होती है। इस लोक में दिये हुए दान का कभी नाश नहीं होता। चित्रगुप्त का यह मत सुनकर भगवान सूर्य के शरीर में रोमांच हो आया। उन महातेजस्वी सूर्य ने सम्पूर्ण देवताओं और पितरों से कहा- 'आप लोगों ने महामना चित्रगुप्त के धर्म विषयक गुप्त रहस्य को सुन लिया। जो मनुष्य महामनस्वी ब्राह्मणों पर श्रद्धा करके यह दान देते हैं, उन्हें भय नहीं होता।' आगे बताये जाने वाले पांच धर्म विषयक दोष जिनमें विधमान हैं, उनका यहाँ कभी उद्धार नहीं होता। ऐेसे अनाचारी नराधमों से बात नहीं करनी चाहिऐ। उन्हें दूर से ही त्याग देना चाहिये। ब्रह्महत्यारा, गोहत्या करने वाला, परस्त्रीलम्प, अश्रद्धालु तथा जो स्त्री पर निर्भर रहकर जीविका चलाता है, ये ही पूर्वोक्त पांच प्रकार के दुराचारी हैं। ये पापकर्मी मनुष्य प्रेतलोक में जाकर नरक की आग में मछलियों की तरह पकाये जाते हैं ओर पीब तथा रक्त भोजन करते हैं। इन पांचों पापाचारियों से देवताओं, पितरों, स्नातक ब्राह्मणों तथा अन्यान्य तपोधनों को बातचीत भी नहीं करनी चाहिए।
इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासन पर्व के अंतर्गत दानधर्म पर्व में अरुन्धती और चित्रगुप्त का धर्म विषयक एक सौ तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज