महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 106 श्लोक 57-72

षडधिकशततम (106) अध्याय: अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)

Prev.png

महाभारत: अनुशासन पर्व: षडधिकशततम अध्याय: श्लोक 57-72 का हिन्दी अनुवाद

भरतश्रेष्ठ! वह स्वर्ग में जाकर सैकड़ों रमणियों से भरे हुए महल में रमण करता है। इस जगत में दुर्बल मनुष्य को हुष्ट-पुष्ट होते देखा गया है। जिसे घाव हो गया है, उसका घाव भर जाता है। रोगी को अपने रोग की निवृत्ति के लिये औषध समूह प्राप्त होता है। क्रोध में भरे हुए पुरुष को प्रसन्न करने का उपाय भी उपलब्ध होता है। अर्थ और मान के लिये दुःखी हुए पुरुष के दुःखों का निवारण भी देखा गया है; परंतु स्वर्ग की इच्छा रखने वाले और दिव्य सुख चाहने वाले पुरुष को ये सब इस लोक के सुखों की बातें अच्छी नहीं लगतीं। अतः वह पवित्रात्मा पुरुष वस्त्राभूषणों से अलंकृत हो सैकड़ों स्त्रियों से भरे हुए इच्छानुसार चलने वाले सुवर्ण-सदृश विमान पर बैठकर रमण करता है। वह स्वस्थ, सफल मनोरथ, सुखी एवं निष्पाप होता है।

जो मनुष्य अनशन व्रत करके अपने शरीर का त्याग कर देता है, वह निम्नांकित फल का भागी होता है। वह प्रातःकाल के सूर्य की भाँति प्रकाशमान, सुनहरी कांति वाले, वैदुर्य और मोती से जटित और वीणा और मृदंग की ध्वनि से निनादित, पताका और दीपकों से आलोकित तथा दिव्य घंटानाद से गूंजते हुए सहस्रों अप्सराओं से युक्त विमान पर वैठकर दिव्य सुख भोगता है।

पाण्डुनन्दन! उसके शरीर में जितने रोमकूप होते हैं, उतने ही सहस्र वर्षों तक वह स्वर्गलोक में सुखपूर्वक निवास करता है। वेद से बढ़कर कोई शास्त्र नहीं है, माता के समान कोई गुरु नहीं है, धर्म से बढ़कर कोई उत्कृष्ट लाभ नहीं हैं तथा उपवास से बढ़कर कोई तपस्या नहीं है। जैसे इस लोक में और परलोक में ब्रह्मवेत्ता ब्राह्मणों से बढ़कर कोई पावन नहीं है, उसी प्रकार उपवास के समान कोई तप नहीं है। देवताओं ने विधिवत उपवास करके ही स्वर्ग प्राप्त किया है तथा ऋषियों को भी उपवास से ही सिद्धि प्राप्त हुई है। परम बुद्धिमान विश्वामित्र जी एक हज़ार दिव्य वर्षों तक प्रतिदिन एक समय भोजन करके भूख का कष्ट सहते हुए तप में लगे रहे। उससे उन्हें ब्राह्मणत्व की प्राप्ति हुई। च्यवन, जमदग्नि, वसिष्ठ, गौतम, भृगु- ये सभी क्षमावान महर्षि उपवास करके ही दिव्य लोकों को प्राप्त हुए हैं। पूर्वकाल में अंगिरा मुनि ने महर्षियों को इस अनशन व्रत की महिमा का दिग्दर्शन कराया था। जो सदा इसका लोगों में प्रचार करता है, वह कभी दुःखी नहीं होता।

कुन्तीनन्‍दन! महर्षि अंगिरा की बतलाई हुई इस उपवास व्रत की विधि को जो प्रतिदिन क्रमश: पढ़ता और सुनता है, उस मनुष्य का पाप नष्ट हो जाता है। वह सब प्रकार के संकीर्ण पापों से छुटकारा पा जाता है तथा उसका मन कभी दोषों से अभिभूत नहीं होता। इतना ही नहीं, वह श्रेष्ठ मानव दूसरी योनि में उत्पन्न हुए प्राणियों की बोली समझने लगता है और अक्षय कीर्ति का भागी होता है।


इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासन पर्व के अंतर्गत दानधर्म पर्व में उपवास विधि विषयक एक सौ छठवाँ अध्याय पूरा हुआ।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः