एकोनपन्चाशदधिकशततम (149) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
महाभारत: अनुशासनपर: एकोनपन्चाशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 99-103 का हिन्दी अनुवाद
817. सुलभः- नित्य-निरन्तर चिन्तन करने वाले को और एकनिष्ठ श्रद्धालु भक्त को बिना ही परिश्रम के सुगमता से प्राप्त होने वाले, 818. सुव्रतः- सुन्दर भोजन करने वाले यानि अपने भक्तों द्वारा प्रेमपूर्वक अर्पण किये हुए पत्र-पुष्पादि मामूली भोजन को भी परम श्रेष्ठ मानकर खाने वाले, 819. सिद्धः- स्वभाव से ही समस्त सिद्धियों से युक्त, 820. शत्रुजित्- देवता और सत्पुरुषों के शत्रुओं को जीतने वाले, 821. शत्रुतापनः- देव-शत्रुओं को तपाने वाले, 822. न्यग्रोधः- वटवृक्षरूप, 823. उदुम्बरः- कारणरूप से आकाश के भी ऊपर रहने वाले, 824. अश्वत्थः- पीपल वृक्षस्वरूप, 825. चाणूरान्ध्रनिषूदनः- चाणूर नामक अन्ध्र जाति के वीर मल्ल को मारने वाले, 826. सहस्रार्चिः- अनन्त किरणों वाले सूर्यरूप, 827. सप्तजिव्हः- काली, कराली, मनोजवा, सुलोहिता, धूम्रवर्णा, स्फुलिंगिनी और विश्वरुचि- इन सात जिह्वाओं वाले अग्निस्वरूप, 828. सप्तैधाः- सात दीप्ति वाले अग्निस्वरूप, 829. सप्तवाहनः- सात घोड़ों वाले सूर्यरूप, 830. अमूर्तिः- मूर्तिरहित निराकार, 831. अनघः- सब प्रकार से निष्पाप, 832. अचिन्त्यः- किसी प्रकार भी चिन्तन करने में न आने वाले अव्यक्तस्वरूप, 833. भयकृत्- दुष्टों को भयभीत करने वाले, 834. भयनाशनः- स्मरण करने वालों के और सत्पुरुषों के भय का नाश करने वाले। 835. अणुः- अत्यन्त सूक्ष्म, 836. बृहत्- सबसे बड़े, 837. कृशः- अत्यन्त पतले और हलके, 838. स्थूलः- अत्यन्त मोटे और भारी, 839. गुणभृत्- समस्त गुणों को धारण करने वाले, 840. निर्गुणः- सत्त्व, रज और तम- इन तीनों गुणों से अतीत, 841. महान- गुण, प्रभाव, ऐश्वर्य और ज्ञान आदि की अतिशयता के कारण परम महत्त्व सम्पन्न, 842. अधृतः- जिनको कोई भी धारण नहीं कर सकता- ऐसे निराधार, 843. स्वधृतः- अपने-आपसे धारित यानि अपनी ही महिमा में स्थित, 844. स्वास्यः- सुन्दर मुख वाले, 845. प्राग्वंशः- जिनसे समस्त वंश-परम्परा आरम्भ हुई है- ऐसे समस्त पूर्वजों के भी पूर्वज आदिपुरुष, 846. वंशवर्धनः- जगत प्रपंचरूप वंश को ओर यादव वंश को बढ़ाने वाले। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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