महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 149 श्लोक 125-142

एकोनपन्चाशदधिकशततम (149) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

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महाभारत: अनुशासनपर्व: एकोनपन्चाशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 125-142 का हिन्दी अनुवाद


जो भक्तिमान पुरुष सदा प्रातःकाल में उठकर स्नान करके पवित्र हो मन में विष्णु का ध्यान करता हुआ इस 'वासुदेव-सहस्रनाम' का भली प्रकार पाठ करता है, वह महान यश पाता है, जाति में महत्त्व पाता है, अचल सम्पत्ति पाता है और अति उत्तम कल्याण पाता है तथा उसको कहीं भय नहीं होता। वह वीर्य और तेज को पाता है तथा आरोग्यवान, कान्तिमान, बलवान, रूपवान और सर्वगुणसम्पन्न हो जाता है। रोगातुर पुरुष रोग से छूट जाता है, बन्धन में पड़ा हुआ पुरुष बन्धन से छूट जाता है, भयभीत भय से छूट जाता है और आपत्ति में पड़ा हुआ आपत्ति से छूट जाता है। जो पुरुष भक्तिसम्पन्न होकर इस विष्णुसहस्रनाम से पुरुषोत्तम भगवान की प्रतिदिन स्तुति करता है, वह शीघ्र ही समस्त संकटों से पार हो जाता है। जो मनुष्य वासुदेव के आश्रित और उनके परायण है, वह समस्त पापों से छूटकर विशुद्ध अन्तःकरण वाला हो सनातन परब्रह्म को पाता है।

वासुदेव के भक्तों का कहीं कभी भी अशुभ नहीं होता है तथा उनको जन्म, मृत्यु, जरा और व्याधि का भी भय नहीं रहता है। जो पुरुष श्रद्धापूर्वक भक्तिभाव से इस विष्णुसहस्रनाम का पाठ करता है, वह आत्मसुख, क्षमा, लक्ष्मी, धैर्य, स्मृति और कीर्ति को पाता है। पुरुषोत्तम के पुण्यात्मा भक्तों को किसी दिन क्रोध नहीं आता, ईर्ष्या उत्पन्न नहीं होती, लोभ नहीं होता और उनकी बुद्धि कभी अशुद्ध नहीं होती। स्वर्ग, सूर्य, चन्द्रमा तथा नक्षत्र सहित आकाश, दस दिशाएँ, पृथ्वी और महासागर- ये सब महात्मा वासुदेव के प्रभाव से धारण किये गये हैं। देवता, दैत्य, गन्धर्व, यक्ष, सर्प और राक्षस सहित यह स्थावर- जंगमरूप सम्पूर्ण जगत श्रीकृष्ण के अधीन रहकर यथायोग्य बरत रहे हैं।

इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, सत्त्व, तेज, बल, धीरज, क्षेत्र, (शरीर) और क्षेत्रज्ञ (आत्मा)- ये सब-के-सब श्रीवासुदेव के रूप हैं, ऐसा वेद कहते हैं। सब शास्त्रों में आचार प्रथम माना जाता है, आचार से ही धर्म की उत्पत्ति होती है और धर्म के स्वामी भगवान अच्युत हैं। ऋषि, पितर, देवता, पन्च महाभूत, धातुएँ और स्थावर- जंगमात्मक सम्पूर्ण जगत- ये सब नारायण से ही उत्पन्न हुए हैं। योग, ज्ञान, सांख्य, विद्याएँ, शिल्प आदि कर्म, वेद, शास्त्र और विज्ञान- ये सब विष्णु से उत्पन्न हुए हैं। वे समस्त विश्व के भोक्ता और अविनाशी विष्णु ही एक ऐसे हैं, जो अनेक रूपों में विभक्त होकर भिन्न-भिन्न भूतविशेषों के अनेक रूपों को धारण कर रहे हैं तथा त्रिलोकी में व्याप्त होकर सबको भोग रहे हैं। जो पुरुष परम श्रेय और सुख पाना चाहता हो, वह भगवान व्यास जी के कहे हुए इस 'विष्णुसहस्रनामस्तोत्र' का पाठ करे। जो विश्व के ईश्वर जगत की उत्पत्ति, स्थिति और विनाश करने वाले जन्मरहित कमललोचन भगवान विष्णु का भजन करते हैं, वे कभी पराभव नहीं पाते हैं।


इस प्रकार श्रीमहाभारत व्यासनिर्मित शतसाहस्रीय संहिता सम्बंधी अनुशासनपर्व के अंतर्गत दानधर्म पर्व में विष्णुसहस्रनाम कथन विषयक एक सौ उनचासवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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