एकोनपन्चाशदधिकशततम (149) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
महाभारत: अनुशासनपर्व: एकोनपन्चाशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 116-124 का हिन्दी अनुवाद
976. यज्ञभृत्- यज्ञों को धारण करने वाले, 977. यज्ञकृत- यज्ञों के रचयिता, 978. यज्ञत- समस्त यज्ञ जिसमें समाप्त होते हैं- ऐसे यज्ञशेषी, 979. यज्ञभुक्- समस्त यज्ञों के भोक्ता, 980. यज्ञसाधनः- ब्रह्मयज्ञ, जपयज्ञ आदि बहुत-से यज्ञ जिनकी प्राप्ति के साधन हैं ऐसे, 981. यज्ञान्तकृत्- यज्ञों का फल देने वाले, 982. यज्ञगुह्यम्- यज्ञों में गुप्त निष्काम यज्ञस्वरूप, 983. अन्नम्- समस्त प्राणियों के अन्न यानि अन्न की भाँति उनकी सब प्रकार से तुष्टि-पुष्टि करने वाले, 984. अन्नादः- समस्त अन्नों के भोक्ता, 985. आत्मयोनिः- जिनका कारण दूसरा कोई नहीं ऐसे स्वयं योनिस्वरूप, 986. स्वयंजातः- स्वयं अपने-आप स्वेच्छापूर्वक प्रकट होने वाले, 987. वैखानः- पातालवासी हिरण्याक्ष का वध करने के लिये पृथ्वी को खोदने वाले, वराह अवतारधारी, 988. सामगायनः- सामदेव का गान करने वाले, 989. देवकीनन्दनः- देवकी के पुत्र, 990. स्रष्टा- समस्त लोकों के रचयिता, 991. क्षितीशः- पृथ्वीपति, 992. पापनाशनः- स्मरण, कीर्तन, पूजन और ध्यान आदि करने से समस्त पाप समुदाय का नाश करने वाले। 993. शंखभृत्- पांचजन्य शंख को धारण करने वाले, 994. नन्दकी- नन्दक नामक खड्ग धारण करने वाले, 995. चक्री- सुदर्शन चक्र धारण करने वाले, 996. शार्गंधन्वा- शारंग धनुषधारी, 997. गदाधरः- कौमोदकी नाम की गदा धारण करने वाले, 998. रथांगपाणिः- भीष्म की प्रतिज्ञा रखने के लिये सुदर्शन चक्र को हाथ में धारण करने वाले श्रीकृष्ण, 999. अक्षोभ्यः- जो किसी प्रकार भी विचलित नहीं किये जा सके, ऐसे, 1000. सर्वप्रहरणायुधः- ज्ञात और अज्ञात जितने भी युद्धादि में काम आने वाले अस्त्र-शस्त्र हैं, उन सबको धारण करने वाले। यहाँ हज़ार नामों की समाप्ति दिखलाने के लिये अन्तिम नाम को दुबारा लिखा गया है। मंगलवाची होने से ऊँकार का स्मरण किया गया है। अन्त में नमस्कार करके भगवान की पूजा की गयी है। इस प्रकार यह कीर्तन करने योग्य महात्मा केशव के दिव्य एक हज़ार नामों का पूर्णरूप से वर्णन कर दिया। जो मनुष्य इस विष्णुसहस्रनाम का सदा श्रवण करता है और जो प्रतिदिन इसका कीर्तन या पाठ करता है, उसका इस लोक में तथा परलोक में कहीं भी कुछ अशुभ नहीं होता। इस विष्णुसहस्रनाम का श्रवण, पठन और कीर्तन करने से ब्राह्मण वेदान्त-पारगामी हो जाता है, क्षत्रिय युद्ध में विजय पाता है, वैश्य धन से सम्पन्न होता है और शूद्र सुख पाता है। धर्म की इच्छा वाला धर्म को पाता है, अर्थ की इच्छा वाला अर्थ पाता है, भोगों की इच्छा वाला भोग पाता है ओर संतान की इच्छा वाला संतान पाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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