एकोनपन्चाशदधिकशततम (149) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
महाभारत: अनुशासनपर: एकोनपन्चाशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 49-55 का हिन्दी अनुवाद
346. पद्मनाथः- हृदय-कमल के मध्य निवास करने वाले, 347. अरविन्दाक्षः- कमल के समान आँखों वाले, 348. पद्मगर्भः- हृदयकमल में ध्यान करने योग्य, 349. शरीरभृत्- अन्नरूप से सबके शरीरों का भरण करने वाले, 350. महर्द्धिः- महान विभूति वाले, 351. ऋद्धः- सब में बढे़-चढ़े, 352. वृद्धात्मा- पुरातन स्वरूप, 353. महाक्षः- विशाल नेत्रों वाले, 354. गरुड़ध्वजः- गरुड़ के चिह्न से युक्त ध्वजा वाले, 355. अतुलः- तुलनारहित, 356. शरभः- शरीरों को प्रत्यगात्मरूप से प्रकाशित करने वाले, 357. भीमः- जिससे पापियों को भय हो ऐसे भयानक, 358. समयज्ञः- समभावरूप यज्ञ से सम्पन्न, 359. हविर्हरिः- यज्ञों में हविर्भाग को और अपना स्मरण करने वालों के पापों को हरण करने वाले, 360. सर्वलक्षणलक्षण्यः- समस्त लक्षणों से लक्षित होने वाले, 361. लक्ष्मीवान्- अपने वक्षःस्थल में लक्ष्मी जी को सदा बसाने वाले, 362. समितिन्जयः- संग्रामविजयी, 363. विक्षरः- नाशरहित, 364. रोहितः- मत्स्यविशेष का स्वरूप धारण करके अवतार लेने वाले, 365. मार्गः- परमानन्दप्राप्ति के साधन-स्वरूप, 366. हेतुः- संसार के निमित्त और उपादानकारण, 367. दामोदरः- यशोदा जी द्वारा रस्सी से बँधे हुए उदर वाले, 368. सहः- भक्तजनों के अपराधों को सहन करने वाले, 369. महीधरः- पृथ्वी को धारण करने वाले, 370. महाभागः- महान भाग्यशाली, 371. वेगवान- तीव्र गति वाले, 372. अमिताशनः- प्रलयकाल में सारे विश्व को भक्षण करने वाले। 373. उद्भवः- जगत की उत्पत्ति के उपादान कारण, 374. क्षोभणः- जगत की उत्पत्ति के समय प्रकृति और पुरुष में प्रविष्ट होकर उन्हें क्षुब्ध करने वाले, 375. देवः- प्रकाशस्वरूप, 376. श्रीगर्भः- सम्पूर्ण ऐश्वर्य को अपने उदर में रखने वाले, 377. परमेश्वरः- सर्वश्रेष्ठ शासन करने वाले, 378. करणम्- संसार की उत्पत्ति के सबसे बड़े साधन, 379. कारणम्- जगत् के उपादान और निमित्त कारण, 380. कर्ता- सबके रचयिता, 381. विकर्ता- विचित्र भुवनों की रचना करने वाले, 382. गहनः- अपने विलक्षण स्वरूप, सामर्थ्य और लीलादि के कारण पहचाने न जा सकने वाले, 383. गुहः- माया से अपने स्वरूप को ढक लेने वाले, 384. व्यवसायः-ज्ञानस्वरूप, 385. व्यवस्थानः- लोकपालादिकों को, समस्त जीवों को, चारों वर्णाश्रमों को एवं उनके धर्मों को व्यवस्थापूर्वक रचने वाले, 386. संस्थानः- प्रलय के सम्यक स्थान, 387. स्थानदः- ध्रुवादि भक्तों को स्थान देने वाले, 388. ध्रुवः- अचल स्वरूप, 389. परर्द्धिः- श्रेष्ठ विभूति वाले, 390. परमस्पष्टः- ज्ञानस्वरूप होने से परम स्पष्ट रूप, 391. तुष्टः- एकमात्र परमानन्दस्वरूप, 392. पुष्टः- एकमात्र सर्वत्र परिपूर्ण, 393. शुभेक्षणः- दर्शनमात्र से कल्याण करने वाले। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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