श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
नवम अध्याय
सातवें अध्याय के सोलहवें श्लोक में जिनको ‘सुकृतिनः’ कहा था, उनको ही नवें अध्याय के तेरहवें श्लोक में ‘महात्मानः’ कहा है। सातवें अध्याय के सोलहवें से अठारहवें श्लोक तक सकाम और निष्कामभाव को लेकर भक्तों के चार प्रकार बताये; और नवें अध्याय के तीसवें तैंतीसवें श्लोक तक वर्ण, आचरण और व्यक्ति को लेकर भक्ति के सात भेद बताये। सातवें अध्याय के उन्नीसवें श्लोक में भगवान ने महात्मा की दृष्टि से ‘वासुदेवः सर्वम्’ कहा और नवें अध्याय के उन्नीसवें श्लोक में भगवान ने अपनी दृष्टि से ‘सदसच्चाहम्’ कहा। भगवान से विमुख होकर अन्य देवताओं में लगने में खास दो ही कारण हैं- पहला कामना और दूसरा भगवान को न पहचानना। सातवें अध्याय के बीसवें श्लोक में कामना के कारण देवताओं के शरण होने की बात कही गयी और नवें अध्याय के तेईसवें श्लोक में भगवान को न पहचानने के कारण देवताओं का पूजन करने की बात कही गयी। सातवें अध्याय के तेईसवें श्लोक में सकाम पुरुषों को अंत वाला (नाशवान) फल मिलने की बात कही और नवें अध्याय के इक्कीसवें श्लोक में सकाम पुरुषों के आवागमन को प्राप्त होने की बात कही। सातवें अध्याय के तेईसवें श्लोक में भगवान ने कहा कि देवताओं के भक्त देवताओं को और मेरे भक्त मेरे को प्राप्त होते हैं। यही बात भगवान ने नवें अध्याय के पचीसवें श्लोक में भी कही। सातवें अध्याय के चौबीसवें श्लोक के पूर्वार्ध में भगवान ने जो ‘अव्यक्तं व्यक्तिमापन्न मन्यन्ते मामबुद्धयः’ कहा था, उसी को नवें अध्याय के ग्यारहवें श्लोक के पूर्वार्ध में ‘अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम्’ कहा है। ऐसे ही सातवें अध्याय के चौबीसवें श्लोक के उत्तरार्ध में जो ‘परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम्’ कहा था, उसी को नवें अध्याय के ग्यारहवें श्लोक के उत्तरार्ध में ‘परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम्’ कहा है। सातवें अध्याय के सत्ताईसवें श्लोक में भगवान ने ‘सर्गे यान्ति’ कहा था, उसी को नवें अध्याय के तीसरे श्लोक में ‘मृत्युसंसारवर्त्मनि’ कहा है। सातवें अध्याय के तीसवें श्लोक में भगवान ने अपने को जानने की बात मुख्य बतायी है और नवें अध्याय के चौंतीसवें श्लोक में भगवान ने अर्पण करने की बात मुख्य बतायी है। |
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