श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
सप्तम अध्याय
यो यो यां यां[1] तनुं भक्तः श्रद्धयार्चितुमिच्छति । अर्थ– जो-जो भक्त जिस-जिस देवता का श्रद्धापूर्वक पूजन करना चाहता है, उस-उस देवता के प्रति मैं उसकी श्रद्धा को दृढ़ कर देता हूँ। व्याख्या– ‘यो यो यां यां तनुं भक्तः.......तामेव विदधाम्यहम्’– जो-जो मनुष्य जिस-जिस देवता का भक्त होकर श्रद्धापूर्वक यजन-पूजन करना चाहता है, उस-उस मनुष्य की श्रद्धा उस-उस देवता के प्रति मैं अचल (दृढ़) कर देता हूँ। वे दूसरों में न लगकर मेरे में ही लग जाएं, ऐसा मैं नहीं करता। यद्यपि उन-उन देवताओं में लगने से कामना के कारण उनका कल्याण नहीं होता, फिर भी मैं उनको उनमें लगा देता हूँ, तो जो मेरे में श्रद्धा-प्रेम रखते हैं, अपना कल्याण करना चाहते हैं, उनकी श्रद्धा को मैं अपने प्रति दृढ़ कैसे नहीं करूँगा अर्थात अवश्य करूँगा। कारण कि मैं प्राणिमात्र का सुहृद हूँ- ‘सुहृदं सर्वभूतानाम्’।[2] इस पर यह शंका होती है कि आप सबकी श्रद्धा अपने में ही दृढ़ क्यों नहीं करते? इस पर भगवान मानो यह कहते हैं कि अगर मैं सबकी श्रद्धा को अपने प्रति दृढ़ करूँ तो मनुष्य जन्म की स्वतंत्रता, सार्थकता ही कहाँ रही? तथा मेरी स्वार्थपरता का त्याग कहाँ हुआ? अगर लोगों को अपने में ही लगाने का मेरा आग्रह रहे, तो यह कोई बड़ी बात नहीं है; क्योंकि ऐसा बर्ताव तो दुनिया के सभी स्वार्थी जीवों का स्वाभाविक होता है। अतः मैं इस स्वार्थपरता को मिटाकर ऐसा स्वभाव सिखाना चाहता हूँ कि कोई भी मनुष्य पक्षपात करके दूसरों से केवल अपनी पूजा प्रतिष्ठा करवाने में ही न लगा रहे और किसी को पराधीन न बनाये। अब दूसरी शंका यह होती है कि आप उनकी श्रद्धा को उन देवताओं के प्रति दृढ़ कर देते हैं, इससे आपकी साधुता तो सिद्ध हो गयी, पर उन जीवों का तो आपसे विमुख होने से अहित ही हुआ? इसका समाधान यह है कि अगर मैं उनकी श्रद्धा को दूसरों से हटाकर अपने में लगाने का भाव रखूँगा तो उनकी मेरे में अश्रद्धा हो जाएगी। परंतु अगर मैं अपने में लगाने का भाव नहीं रखूँगा और उनको स्वतंत्रता दूँगा, तो उस स्वतंत्रता को पाने वालों में जो बुद्धिमान होंगे, वे मेरे इस बर्ताव को देखकर मेरी तरफ ही आकृष्ट होंगे। अतः उनके उद्धार का यही तरीका बढ़िया है। अब तीसरी शंका यह होती है कि जब आप स्वयं उनकी श्रद्धा को दूसरों में दृढ़ कर देते हैं, तो फिर उस श्रद्धा को कोई मिटा ही नहीं सकता। फिर तो उसका पतन ही होता चला जाएगा? इसका समाधान यह है कि मैं उनकी श्रद्धा को देवताओं के प्रति ही दृढ़ करता हूँ, दूसरों के प्रति नहीं- ऐसी बात नहीं है। मैं तो उनकी इच्छा के अनुसार ही उनकी श्रद्धा को दृढ़ करता हूँ और अपनी इच्छा को बदलने में मनुष्य स्वतंत्र है, योग्य है। इच्छा को बदलने में वे परवश, निर्बल और अयोग्य नहीं है। अगर इच्छा को बदलने में वे परवश होते तो फिर मनुष्य जन्म की महिमा ही कहाँ रही? और इच्छा (कामना) का त्याग करने की आज्ञा भी मैं कैसे दे सकता था- ‘जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम्’?[3]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ जैसे यहाँ ‘यो यः, यां याम्’ आया है, ऐसे ही आठवें अध्याय के छठे श्लोक में ‘यं यं वापि स्मरन्भावम्’ आया है। दो बार ‘यत्’ शब्द का अर्थात ‘यो यः’ ‘यं याम’ और ‘यं यम्’ शब्दों का प्रयोग करने का तात्पर्य है कि जैसे मनुष्य उपासना करने में स्वतंत्र है, ऐसे ही अंतकाल मे स्मरण करने में भी मनुष्य सर्वथा स्वतंत्र है अर्थात मेरा स्मरण करे चाहे किसी और का स्मरण करे- इसमें वह स्वतंत्र है।
- ↑ गीता 5:29
- ↑ गीता 3:43
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