श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
सप्तम अध्याय
‘प्रपद्यन्तेऽन्यदेवताः’- कामनापूर्ति के लिए अनेक उपायों और नियमों को धारण करके मनुष्य अन्य देवताओं की शरण लेते हैं, भगवान की शरण नहीं लेते। यहाँ ‘अन्यदेवताः’ कहने का तात्पर्य है कि वे देवताओं को भगवत्स्वरूप नहीं मानते हैं, प्रत्युत उनकी अलग सत्ता मानते हैं, इसी से उनको अंत वाला (नाशवान) फल मिलता है- ‘अन्तवत्तु फलं तेषाम्’।[1] अगर वे देवताओं की अलग सत्ता न मानकर उनको भगवत्स्वरूप ही मानें तो फिर उनको अंत वाला फल नहीं मिलेगा, प्रत्युत अविनाशी फल मिलेगा। यहाँ देवताओं की शरण लेने में दो कारण मुख्य हुए- एक कामना और एक अपने स्वभाव की परवशता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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