श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
सप्तम अध्याय
पुण्यो गन्धः पृथिव्यां च तेजश्चास्मि विभावसौ । व्याख्या- ‘पुण्यो गंधः पृथिव्याम्’- पृथ्वी गन्धतन्मात्रा से उत्पन्न होती है, गंध-तन्मात्रारूप से रहती है और गंध-तन्मात्रा में ही लीन होती है। तात्पर्य है कि गंध के बिना पृथ्वी कुछ नहीं है। भगवान कहते हैं पृथ्वी में वह पवित्र गंध मैं हूँ। यहाँ गंध के साथ ‘पुण्यः’ विशेषण देने का तात्पर्य है कि गन्धमात्र पृथ्वी में रहती है। उसमें पुण्य अर्थात पवित्र गंध तो पृथ्वी में स्वाभाविक रहती है, पर दुर्गन्ध किसी विकृति से प्रकट होती है। ‘तेजश्चास्मि विभावसौ’- तेज रूप-तन्मात्रा से प्रकट होता है, उसी में रहता है और अंत में उसी में लीन हो जाता है। अग्नि में तेज ही तत्त्व है। तेज के बिना अग्नि निस्तत्त्व है, कुछ नहीं है। वह तेज मैं ही हूँ। ‘जीवनं सर्वभूतेषु’- संपूर्ण प्राणियों में एक जीवनी शक्ति है, प्राणशक्ति है, जिससे सब जी रहे हैं। उस प्राणशक्ति से वे प्राणी कहलाते हैं। प्राणशक्ति के बिना उनमें प्राणिपना कुछ नहीं है। प्राणशक्ति के कारण गाढ़ नींद में सोता हुआ आदमी भी मुर्दे से विलक्षण दिखता है। वह प्राणशक्ति मैं ही हूँ। ‘तपश्चास्मि तपस्विषु’- द्वंद्वसहिष्णुता को तप कहते हैं। परंतु वास्तव में परमात्मतत्त्व की प्राप्ति के लिए कितने ही कष्ट आएं, उनमें निर्विकार रहना ही असली तप है। यही तपस्वियों में तप है, इसी से वे तपस्वी कहलाते हैं और इसी तप को भगवान अपना स्वरूप बताते हैं। अगर तपस्वियों में से ऐसा तप निकाल दिया जाए तो वे तपस्वी नहीं रहेंगे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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