श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
सप्तम अध्याय
जैसे- निर्धन आदमी धन की प्राप्ति में पुरुषार्थ मानता है, अनपढ़ आदमी पढ़ लेने में पुरुषार्थ मानता है, अप्रसिद्ध आदमी अपना नाम विख्यात कर लेने में अपना पुरुषार्थ मानता है, इत्यादि। निष्कर्ष यह निकला कि जो अभी नहीं है, उसकी प्राप्ति में ही मनुष्य अपना पुरुषार्थ मानता है। पर यह पुरुषार्थ वास्तव में पुरुषार्थ नहीं है। कारण कि जो पहले नहीं थे, प्राप्ति के समय भी जिनका निरंतर संबंध-विच्छेद हो रहा है और अंत में जो ‘नहीं’ में भरती हो जाएंगे, ऐसे पदार्थों को प्राप्त करना पुरुषार्थ नहीं है। परमात्मा पहले भी मौजूद थे, अब भी मौजूद हैं और आगे भी सदा मौजूद रहेंगे; क्योंकि उनका कभी अभाव नहीं होता। इसलिए परमात्मा को उत्साहपूर्वक प्राप्त करने का जो प्रयत्न है, वही वास्तव में पुरुषार्थ है। उसकी प्राप्ति करने में ही मनुष्यों की मनुष्यता है। उसके बिना मनुष्य कुछ नहीं है अर्थात निरर्थक है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
श्लोक संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज