श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
द्वितीय अध्याय ‘मा कर्मफलहेतुर्भुः’- तू कर्मफल का हेतु भी मत बन। तात्पर्य है कि शरीर, इंद्रियाँ, मन, बुद्धि आदि कर्म-सामग्री के साथ अपनी किञ्चिंमात्र भी ममता नहीं रखनी चाहिए; क्योंकि इनमें ममता होने से मनुष्य कर्म फल का हेतु बन जाता है। आगे पांचवें अध्याय के ग्यारहवें श्लोक में भी भगवान ने शरीर, मन, बुद्धि और इंद्रियों के साथ ‘कैवलैः’ पद देकर बताया है कि शरीर आदि के साथ किञ्चिंमात्र भी ममता नहीं होनी चाहिए। शुभ क्रियाओं में फल की इच्छा न होने पर भी ‘मेरे द्वारा किसी का उपकार हो गया, किसी का हित हो गया, किसी को सुख पहुँचा’- ऐसा भाव हो जाता है तो यह कर्मफल का हेतु बनना है। कारण कि ऐसा भाव होने से शुभ कर्म के साथ और मन, बुद्धि इंद्रियों आदि के साथ संबंध हो जाता है, जो कि असत् का संग है। वास्तव में अंतःकरण, बहिःकरण और क्रियाओं के साथ हमारा कोई संबंध नहीं है। इनका संबंध समष्टि संसार के साथ है। जैसे दूसरे किसी व्यक्ति के द्वारा दूसरे किसी का हित होता है, तो उसमें हम अपना संबंध नहीं मानते, उसमें अपने को निमित्त नहीं मानते। ऐसे ही अपने कहलाने वाले शरीर आदि से किसी का हित हो जाए, तो उसमें अपने को निमित्त न माने। जब अपने को किसी भी क्रिया में निमित्त, हेतु नहीं मानेंगे, तो कर्म फल का हेतु भी नहीं बनेंगे। ‘मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि’- कम न करने में भी तेरी आसक्ति नहीं होनी चाहिये। कारण कि कर्म न करने में आसक्ति होने से आलस्य, प्रमाद आदि होंगे। कर्मफल में आसक्ति रहने से जैसा बन्धन होता है, वैसा ही बंधन कर्म न करने में आलस्य, प्रमाद आदि होता है; क्योंकि आलस्य-प्रमाद का भी एक भोग होता है अर्थात उनका भी एक सुख होता है, जो तमोगुण है- 'निद्रालस्यप्रमादोत्थं तत्तामसमुदाहृतम्'[1] और जिसका फल अधोगति होता है- 'अधो गच्छन्ति तामसा:'[2] तात्पर्य यह हुआ कि राग, आसक्ति कहीं भी होगी तो वह बाँधने वाली हो जायगी- 'कारणं गुणसंगोऽस्य सदसद्योनिजजन्मसु'।[3] कर्मरहित होने से हमें लौकिक लाभ होगा, संसार में हमारी प्रसिद्धि होगी आदि कोई सांसारिक प्रयोजन भी नहीं होना चाहिए; और समाधि लग जाने से आध्यात्मिक तत्त्व में हमारी स्थिति होगी आदि कोई पारमार्थिक प्रयोजन भी नहीं होना चाहिए। तात्पर्य है कि ‘कर्म न करने से सांसारिक और पारमार्थिक उन्नति होगी’- यह भी कर्म करने में आसक्ति हैं; क्योंकि वास्तविक तत्त्व कर्म करने और न करने से अतीत है। इस श्लोक में भगवान का यह तात्पर्य मालूम देता है कि परिवर्तनशील वस्तु, व्यक्ति, पदार्थ क्रिया, घटना, परिस्थिति, अवस्था, स्थूल-सूक्ष्म-कारण शरीर आदि के साथ साधक का सर्वथा निर्लिप्तता होनी चाहिए। इनके साथ किञ्चिंमात्र भी किसी तरह का संबंध नहीं होना चाहिए। इस श्लोक के चार चारणों में चार बाते आयी हैं-
इनमें से पहले और चौथे चरण की बात एक है, तथा दूसरे और तीसरी चरण की बात एक है। पहले चरण में कर्म करने में अधिकार बताया है और चौथे चरण में कर्म न करने में आसक्ति होने का निषेध किया है। दूसरे चरण में फल की इच्छा का निषेध किया है। तात्पर्य यह हुआ कि अकर्मण्यता में रुचि होने से प्रमाद, आलस्य आदि ‘तामसी वृत्ति’ के साथ तेरा संबंध हो जाएगा। कर्म एवं कर्मफल के साथ संबंध जोड़ने से तेरा ‘राजसी वृत्ति’ के साथ संबंध हो जाएगा। प्रमाद, आलस्य, कर्म, कर्मफल आदि का संबंध न रहने पर जो विवेकजन्य सुख होता है, प्रकाश मिलता है, ज्ञान मिलता है, उसके साथ संबंध जोड़ने से ‘सात्त्विकी वृत्ति’ के साथ संबंध हो जाएगा। इनके साथ संबंध होना ही जन्म-मरण का कारण है। अतः साधक कर्म, कर्मफल और इनके त्याग का सुख- इनमें से किसी के भी साथ अपना संबंध न जोड़े, इनमें राग या आसक्ति न करे। कर्म करते हुए इनके साथ संबंध न रखना ही कर्मयोग है। संबंध- पूर्व श्लोक में कर्म करने की आज्ञा देने के बाद अब भगवान् कर्म करते हुए सम रहने का प्रकार बताते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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