श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
द्वितीय अध्याय योगस्थः कुरु कर्माणि संङ्ग त्यक्त्वा धनञ्जय । व्याख्या- 'संङ्ग त्यक्त्वा'- किसी भी कर्म में, किसी भी कर्म के फल में, किसी भी देश, काल, घटना, परिस्थिति, अंतःकरण, बहिःकरण आदि प्राकृत वस्तु में तेरी आसक्ति न हो, तभी तू निर्लिप्ततापूर्वक कर्म कर सकता है। अगर तू कर्म, फल आदि किसी में भी चिपक जाएगा, त निर्लिप्तता कैसे रहेगी? और निर्लिप्तता रहे बिना वह कर्म मुक्तिदायक कैसे होगा? ‘सिद्ध्यसिद्धयोः समो भूत्वा’- आसक्ति के त्याग का परिणाम क्या होगा? सिद्धि और असिद्धि में समता हो जाएगी। कर्म का पूरा होना अथवा न होना, सांसारिक दृष्टि से उसका फल अनुकूल होना अथवा प्रतिकूल होना, उस कर्म को करने से आदर-निरादर, प्रशंसा-निंदा होना, अंतःकरण की शुद्धि होना अथवा न होना आदि-आदि जो सिद्धि और असिद्धि है, उसमें सम रहन चाहिए[1]। कर्मयोगी की इतनी समता अर्थात निष्काम भाव होना चाहिए कि कर्मों की पूर्ति हो चाहे न हो, फल की प्राप्ति हो चाहे न हो, अपनी मुक्ति हो चाहे न हो मुझे तो केवल कर्तव्य कर्म करना है। साधक को असंङ्गता का अनुभव न हुआ हो, उसमें समता न आयी हो, तो भी उसका उद्देश्य असङ्ग होने का, सम होने का ही हो। जो बात उद्देश्य में आ जाती है, वही अंत में सिद्ध हो जाती है। अतः साधनरूप समता से अर्थात अंतःकरण की समता से साध्यरूप समता स्वतः आ जाती है- ‘तदा योगमावाप्स्यसि’।[2] ‘समत्वं योग उच्यते’- समता ही योग है अर्थात समता परमात्मा का स्वरूप है। वह समता अंतःकरण में निरंतर बनी रहनी चाहिए। आगे पाँचवें अध्याय के उन्नीसवें श्लोक में भगवान]] कहेंगे कि ‘जिनका मन समता में स्थित हो गया है, उन लोगों ने जीवित अवस्था में ही संसार को जीत लिया है; क्योंकि ब्रह्म निर्दोष और सम है; अतः उनकी स्थिति ब्रह्म में ही है।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ इस विषय में श्रीशंकराचार्य जी महाराज (गीता 2।48 की व्याख्या करते हुए) कहते हैं-
योगस्थः सन् कुरु कर्माणि केवलमीश्वरार्थ तत्रापीश्वरो में तुष्यत्विति संङ्ग त्यक्त्वा धनञ्जय ! फलतृष्णाशून्येन क्रियमाणे कर्माणि सत्त्वशुद्धिजा ज्ञानप्राप्तिलक्षणा सिद्धिस्तद् विपर्ययजा असिद्धिस्तयोः सिद्ध्यसिद्ध्योरपि समस्तुल्यो भूत्वा कुरु कर्माणि। कोऽसौ योगो यत्रस्थः कुर्वित्युक्तमिदमेव तत् सिद्ध्योसिद्ध्यो: समत्व योग उच्चयते
‘हे धनञ्जय ! योग में स्थित होकर केवल ईश्वर के लिए कर्म कर। उसमें भी ‘ईश्वर मेरे पर प्रसन्न हो जाए’- इस संङ्ग (कामना) को छोड़कर कर्म कर। फल तृष्णारहित पुरुष के द्वारा कर्म किए जाने पर अंतःकरण की शुद्धि से उत्पन्न होने वाली ज्ञान प्राप्ति तो सिद्धि है और उससे विपरीत। (ज्ञान प्राप्ति का न होना) असिद्धि है। ऐसी सिद्धि असिद्धि में सम होकर अर्थात दोनों को तुल्य समझकर कर्म कर। वह कौन सा योग है, जिसमें स्थित होकर कर्म करने के लिए कहा है? यही जो सिद्धि और असिद्धि में सम होना है, इसी को योग कहते हैं।‘’ - ↑ 2।53
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