श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
द्वितीय अध्याय दुःखदायी परिस्थिति आने पर मनुष्य को कभी भी घबराना नहीं चाहिए, प्रत्युत यह विचार करना चाहिए कि हमने पहले सुख-भोग की इच्छा से ही पाप किए थे और वे ही पाप दुःखदायी परिस्थिति के रूप में आकर नष्ट हो रहे हैं। इसमें एक लाभ यह है कि इन पापों का प्रायश्चित हो रहा है और हम शुद्ध हो रहे हैं। दूसरा लाभ यह है कि हमें इस बात की चेतावनी मिलती है कि अब हम सुखभोग के लिए पाप करेंगे तो आगे भी इसी प्रकार दुःखदायी परिस्थिति आएगी। इसलिए सुखभोग की इच्छा से अब कोई काम करना ही नहीं है। प्रत्युत प्राणिमात्र के हित के लिए ही काम करना है। तात्पर्य यह हुआ कि पशु-पक्षी, कीट पतंग आदि योनियों के लिए पुराने कर्मों का फल और नया कर्म- ये दोनों ही भोगरूप में हैं, और मनुष्य के लिए पुराने कर्मों का फल और नया कर्म[1] ये दोनों ही उद्धार के साधन हैं। ‘मा फलेषु कदाचन’- फल में तेरा किञ्चिंमात्र भी अधिकार नहीं है अर्थात फल की प्राप्ति में तेरी स्वतंत्रता नहीं है; क्योंकि फल का विधान तो मेरे अधीन है। अतः फल की इच्छा न रखकर कर्तव्य कर्म कर। अगर तू फल की इच्छा रखकर कर्म करेगा तो तू बँध जाएगा- ‘फले सक्तो निबध्यते’।[2] कारण कि फलेच्छा अर्थात भोक्तृत्व पर ही कर्तृत्व टिका हुआ है अर्थात भोक्तृत्व से ही कर्तृत्व आता है। फलेच्छा सर्वथा मिटने से कर्तृत्व मिट जाता है, और कर्तृत्व मिटने से मनुष्य कर्म करता हुआ भी नहीं बँधता। भाव यह हुआ कि वास्तव में मनुष्य कर्तृत्व में उतना फँसा हुआ नहीं है, जितना फलेच्छा अर्थात भोक्तृत्व में फँसा हुआ है।[3] दूसरी बात, जितने भी कर्म होते हैं, वे सभी प्राकृत पदार्थों और व्यक्तियों के संगठन से ही होते हैं। पदार्थों और व्यक्तियों के संगठन के बिना स्वयं कर्म कर ही नहीं सकता; अतः इनके संगठन के द्वारा किए हुए कर्म का फल अपने लिए चाहना ईमानदारी नहीं है। अतः कर्म का फल चाहना मनुष्य के लिए हितकारक नहीं है। फल में तेरा अधिकार नहीं है- इससे यह बात सिद्ध हो जाती है कि फल के साथ संबंध जोड़ने में अथवा न जोड़ने में मात्र मनुष्य स्वतंत्र हैं, सबल हैं। इसमें वे पराधीन और निर्बल नहीं है। ‘फलेषु’ पद में बहुबचन देने का तात्पर्य है कि मनुष्य कर्म तो एक करता है, पर उस कर्म के फल अनेक चाहता है। जैसे, मैं अमुक कर्म कर रहा हूँ तो इससे मेरे को पुण्य हो जाए, संसार में मेरी कीर्ति हो जाए, लोग मेरे को अच्छा समझें, मेरा आदर-सत्कार करें, मेरे को इतना धन प्राप्त हो जाय आदि-आदि। निष्काम होने के उपाय-
कर्मों में निष्काम होने के लिए साधक में तेजी का विवेक भी होना चाहिए और सेवाभाव भी होना चाहिए; क्योंकि इन दोनों के होने से ही कर्मयोग ठीक तरह से आचरण में आएगा, नहीं तो ‘कर्म’ हो जाएंगे, पर ‘योग’ नहीं होगा। तात्पर्य है कि अपने सुख-आराम का त्याग करने में तो ‘विवेक’ की प्रधानता होनी चाहिए और दूसरों को सुख-आराम पहुँचाने में ‘सेवाभाव’ की प्रधानता होनी चाहिए। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ पुरुषार्थ
- ↑ गीता 5।12
- ↑ अंतःकरण में भोक्तृत्व (फलेच्छा, फलासक्ति) अधिक रहने के कारण ही मनुष्य भगवत्प्राप्ति, तत्त्वज्ञान, प्रेम प्राप्ति आदि में कर्मों को कारण मानता है। वास्तव में भगवत्प्राप्ति आदि कर्मों पर निर्भर नहीं है, प्रत्युत भाव और बोध पर ही निर्भर है। कारण कि अप्राप्त पदार्थों की प्राप्ति तो कर्मों पर निर्भर है, पर नित्यप्राप्त तत्त्व की प्राप्ति कर्मों निर्भर नहीं है।
संबंधित लेख
श्लोक संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज