श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
द्वितीय अध्याय भयाद्रणादुपरतं मंस्यन्ते त्वां महारथाः । व्याख्या- ‘भयाद्रणादुपरतं मंस्यन्ते त्वां महारथा:’- तू ऐसा समझता है कि मैं तो केवल अपना कल्याण करने के लिए युद्ध से उपरत हुआ हूँ; परंतु अगर ऐसी ही बात होती और युद्ध को तू पाप समझता, तो पहले ही एकान्त में रहकर भजन-स्मरण करता और तेरी युद्ध के लिए प्रवृत्ति भी नहीं होती। परंतु तू एकान्त में न रहकर युद्ध में प्रवृत्त हुआ है। अब अगर तू युद्ध से निवृत्त होगा तो बड़े-बड़े महारथी लोग ऐसा ही मानेंगे कि युद्ध में मारे जाने के भय से ही अर्जुन युद्ध से निवृत्त हुआ है। अगर वह धर्म का विचार करता तो युद्ध से निवृत्त नहीं होता, क्योंकि युद्ध करना क्षत्रिय का धर्म है। अतः वह मरने के भय से ही युद्ध से निवृत्त हो रहा है। ‘येषां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम्’- भीष्म, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, शल्य आदि जो बड़े-बड़े महारथी हैं, उनकी दृष्टि में तू बहुमान्य हो चुका है अर्थात उनके मन में यह एक विश्वास है कि युद्ध करने में नामी शूरवीर तो अर्जुन ही है। वह युद्ध में अनेक दैत्यों, देवताओं, गंधर्वों आदि को हरा चुका है। अगर अब तू युद्ध से निवृत्त हो जायगा, तो उन महारथियों के सामने तू लघुता[1] को प्राप्त हो जायगा अर्थात उनकी दृष्टि में तू गिर जायगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ तुच्छता
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