श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
द्वितीय अध्याय अवाच्यवादांश्च बहून्वदिष्यन्ति तवाहिताः । व्याख्या- ‘अवाच्यवादांश्च........निन्दन्तस्तव सामर्थ्यम्’- ‘अहित’ नाम शत्रु का है, अहित करने वाले का है। तेरे जो दुर्योधन, दुःशासन, कर्ण आदि शत्रु हैं, तेरे वैर न रखने पर भी वे स्वयं तेरे साथ वैर रखकर तेरा अहित करने वाले हैं। वे तेरी सामर्थ्य को जानते हैं कि यह बड़ा भारी शूरवीर है। ऐसा जानते हुए भी वे तेरी सामर्थ्य की निंदा करेंगे कि यह हिजड़ा है। देखो ! यह युद्ध के मौके पर हो गया न अलग ! क्या यह हमारे सामने टिक सकता है? क्या यह हमारे साथ युद्ध कर सकता है? इस प्रकार तुझे दु:खी करने के लिए, तेरे भीतर जलन पैदा करने के लिए न जाने कितने न कहने लायक वचन कहेंगे। उनके वचनों को तू कैसे सहेगा? ‘ततो दुःखतरं नु किम्’- इससे बढ़कर अन्यत्र भयंकर दुःख क्या होगा? क्योंकि यह देखा जाता है कि जैसे मनुष्य तुच्छ आदमियों के द्वारा तिरस्कृत होने पर अपना तिरस्कार सह नहीं सकता और अपनी योग्यता से, अपनी शूरवीरता से अधिक काम करके मर मिटता है। ऐसे ही जब शत्रुओं के द्वारा तेरा सर्वथा अनुचित तिरस्कार हो जायगा, तब उसको तू सह नहीं सकेगा और तेजी में आकर युद्ध के लिए कूद पड़ेगा। तेरे से युद्ध किए बिना रहा नहीं जायगा। अभी तो तू युद्ध से उपरत हो रहा है, पर जब तू समय पर युद्ध के लिए कूद पड़ेगा, तब तेरी कितनी निंदा होगी। उस निंदा को तू कैसे सह सकेगा? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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