श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
प्रथम अध्याय संबंध- दुर्योधन की बातें सुनकर जब द्रोणाचार्य कुछ भी नहीं बोले, तब अपनी चालाकी न चल सकने से दुर्योधन के मन में क्या विचार आता है- इसको संजय आगे के श्लोक में कहते हैं[1]। अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम् । व्याख्या- ‘अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम्’- अधर्म- अन्याय के कारण दुर्योधन के मन में भय होने से वह अपनी सेना के विषय में सोचता है कि हमारी सेना बड़ी होने पर भी अर्थात पांडवों की अपेक्षा चार अक्षौहिणी अधिक होने पर भी पांडवों पर विजय प्राप्त करने में है तो असमर्थ ही! कारण कि हमारी सेना में मतभेद हैं। उसमें इतनी एकता[4], निर्भयता, निःसकोचता नहीं है, जितनी की पांडवों की सेना में है। हमारी सेना के मुख्य संरक्षक पितामह भीष्म उभयपक्षपाती हैं अर्थात उनके भीतर कौरव पांडव- दोनों सेनाओं का पक्ष है। वे कृष्ण के बड़े भक्त हैं। उनके हृदय में युधिष्ठिर का बड़ा आदर है। अर्जुन पर भी उनका बड़ा स्नेह है। इसलिए वे हमारे पक्ष में रहते हुए भीतर से पांडवों का भला चाहते हैं। वे ही भीष्म हमारी सेना के मुख्य सेनापति हैं। ऐसी दशा में हमारी सेना पांडवों के मुकाबले में कैसे समर्थ हो सकती है? नहीं हो सकती। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ संजय व्यासप्रदत्त दिव्य दृष्टि से सैनिकों के मन में आयी बात को भी जान लेने में समर्थ थे- प्रकाशं
वामप्रकाशं वा दिवा वा यदि वा निशि।
मनसा चिंतिमपि सर्व वेत्यस्ति संजयः।। - ↑ उभयपक्षपाती
- ↑ निज सेनापति पक्षपाती
- ↑ संगठन
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