श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
प्रथम अध्याय अर्जुन कौरव-सेना को देखकर किसी के पास न जाकर हाथ में धनुष उठाते हैं[1], पर दुर्योधन पांडव सेना को देखकर द्रोणाचार्य के पास जाता है और उनसे पांडवों की व्यूहरचनायुक्त सेना को देखने के लिए कहता है। इससे सिद्ध होता है कि दुर्योधन के हृदय में भय बैठा हुआ है [2]। भीतर में भय होने पर भी वह चालाकी से द्रोणाचार्य को प्रसन्न करना चाहता है, उनको पांडवों के विरुद्ध उकसाना चाहता है। कारण कि दुर्योधन के हृदय में अधर्म है, अन्याय है, पाप है। अन्यायी, पापी व्यक्ति कभी निर्भय और सुख-शांति से नहीं रह सकता- यह नियम है। परंतु अर्जुन के भीतर धर्म है, न्याय है। इसलिए अर्जुन के भीतर अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए चालाकी नहीं है, भय नहीं है; किंतु उत्साह है, वीरता है। तभी तो वे वीरता में आकर सेना-निरीक्षण करने के लिए भगवान को आज्ञा देते हैं कि ‘हे अच्युत! दोनों सेनाओं के मध्य मेरे रथ को खड़ा कर दीजिये’[3]। इसका तात्पर्य है कि जिसके भीतर नाशवान धन संपत्ति आदि का आश्रय है, आदर है और जिसके भीतर अधर्म है अन्याय है, दुर्भाव है, उसके भीतर वास्तविक बल नहीं होता। वह भीतर से खोखला होता है और वह कभी निर्भय नहीं होता। परंतु जिसके भीतर अपने धर्म का पालन है और भगवान का आश्रय है, वह कभी भयभीत नहीं होता। उसका बल सच्चा होता है। वह सदा निश्चिंत और निर्भय रहता है। अतः अपना कल्याण चाहने वाले सुधाकों को अधर्म, अन्याय आदि का सर्वथा त्याग करके और एकमात्र भगवान का आश्रय लेकर भगवत्प्रीत्यर्थ अपने धर्म का अनुष्ठान करना चाहिये। भौतिक संपत्ति को महत्त्व देकर और संयोगजन्य सुख के प्रलोभन में फँसकर कभी अधर्म का आश्रय नहीं लेना चाहिये, क्योंकि इन दोनों से मनुष्य का कभी हित नहीं होता, प्रत्युत अहित ही होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गीता 1।20
- ↑ जब कौरवों की सेना के शंख आदि बाजे बजे, तब उनके शब्द का पांडव- सेना पर कुछ भी असर नहीं पड़ा। परंतु जब पांडवों की सेना के शंख बजे, तब उनके शब्द से दुर्योधन आदि के हृदय विदीर्ण हो गये (1।13,19)। इससे सिद्ध होता है कि अधर्म- अन्याय का पक्ष लेने के कारण दुर्योधन आदि के हृदय कमज़ोर हो गए थे और उनमें भय बैठा हुआ था।
- ↑ 1।21
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