श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
इस विषय में विष्णुपुराण में एक कथा आती है- एक बार बहुत से ऋषि-मुनि मिलकर श्रेष्ठता का निर्णय करने के लिए भगवान वेदव्यास जी के पास गए। व्यास जी ने सबको आदरपूर्वक बिठाया और स्वयं गंगा में स्नान करने चले गए। गंगा में स्नान करते हुए उन्होंने कहा- ‘कलियुग, तुम धन्य हो! स्त्रियों, तुम धन्य हो! शूद्रों, तुम धन्य हो! जब व्यास जी स्नान करके ऋषियों के पास आए तो ऋषियों ने कहा- महाराज! आपने कलियुग, स्त्रियों और शूद्रों को धन्यवाद कैसे दिया!’ तो उन्होंने कहा कि कलियुग में अपने धर्म का पालन करने से स्त्रियों और शूद्रों का कल्याण जल्दी और सुगमतापूर्वक हो जाता है। यहाँ एक और बात सोचने की है कि जो अपने स्वार्थ का काम करता है, वह समाज में और संसार में आदर का पात्र नहीं होता। समाज में ही नहीं, घर में भी जो व्यक्ति पेटू और चट्टू होता है, उसकी दूसरे निन्दा करते हैं। ब्राह्मणों ने स्वार्थ-दृष्टि से अपने ही मुँह से अपनी (ब्राह्मणों की) प्रशंसा, श्रेष्ठता की बात नहीं कही है। उन्होंने ब्राह्मणों के लिए त्याग ही बताया है। सात्त्विक मनुष्य अपनी प्रशंसा नहीं करते, प्रत्युत दूसरों की प्रशंसा, दूसरों का आदर करते हैं। तात्पर्य है कि ब्राह्मणों ने कभी अपने स्वार्थ और अभिमान की बात नहीं कही।
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