श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
अधर्म धर्ममिति या मन्यते तमसावृता ।
व्याख्या- ‘अधर्म धर्ममिति या मन्यते तमसावृत्ता'- ईश्वर की निन्दा करना; शास्त्र, वर्ण, आश्रम और लोक-मर्यादा के विपरीत काम करना; माता-पिता के साथ अच्छा बर्ताव न करना; संत-महात्मा, गुरु-आचार्य आदि का अपमान करना; झूठ, कपट, बेईमानी, जालसाजी, अभक्ष्य भोजन, परस्त्रीगमन आदि शास्त्रनिषिद्ध पाप-कर्मों को धर्म मानना- यह सब अधर्म को ‘धर्म’ मानना है। अपने शास्त्र, वर्ण, आश्रम की मर्यादा में चलना; माता- पिता की आज्ञा का पालन करना तथा उनकी तन-मन-धन से सेवा करना; संत-महात्माओं के उपदेशों के अनुसार अपना जीवन बनाना; धार्मिक ग्रंथों का पठन-पाठन करना; दूसरों की सेवा-उपकार करना; शुद्ध पवित्र भोजन करना आदि शास्त्रविहित कर्मों को उचित न मानना- यह धर्म को ‘अधर्म’ मानना है। तामसी बुद्धि वाले मनुष्यों के विचार होते हैं कि ‘शास्त्रकारों ने, ब्राह्मणों ने अपने को बड़ा बता दिया और तरह-तरह के नियम बनाकर लोगों को बाँध दिया, जिससे भारत परतंत्र हो गया; जब तक ये शास्त्र रहेंगे, या धार्मिक पुस्तकें रहेंगी, तब तक भारत का उत्थान नहीं होगा, भारत परतंत्रता की बेड़ी में ही जकड़ा हुआ रहेगा, आदि-आदि।’ इसलिए वे मर्यादाओं को तोड़ने में ही धर्म मानते हैं। ‘सर्वार्थान्विपरीतांश्च’- आत्मा को स्वरूप न मानकर शरीर को ही स्वरूप मानना; ईश्वर को न मान करके दृश्य जगत को ही सच्चा मानना; दूसरों को तुच्छ समझकर अपने को ही सबसे बड़ा मानना; दूसरों को मूर्ख समझकर अपने को ही पढ़ा-लिखा, विद्वान समझना; जितने संत-महात्मा हो गये हैं, उनकी मान्यताओं से अपनी मान्यता को श्रेष्ठ मानना; सच्चे सुख की तरफ ध्यान न देकर वर्तमान में मिलने वाले संयोगजन्य सुख को ही सच्चा मानना; न करने योग्य कार्य को ही अपना कर्तव्य समझना; अपवित्र वस्तुओं को ही पवित्र मानना- यह संपूर्ण चीजों को उलटा मानना है। ‘बुद्धिः सा पार्त तामसी’- तमोगुण से आवृत्त जो बुद्धि अधर्म को धर्म, धर्म को अधर्म और अच्छे को बुरा, सुलटे को उलटा मानती है, वह बुद्धि तामसी है। यह तामसी बुद्धि ही मनुष्य को अधोगति में ले जाने वाली है- ‘अधो गच्छन्ति तामसाः’।[1] इसलिए अपना उद्धार चाहने वाले को इसका सर्वथा त्याग कर देना चाहिए। संबंध- अब भगवान सात्त्विकी धृति के लक्षण बताते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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