श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
धृत्या यया रधारयते मन:प्राणेन्द्रियक्रिया: ।
व्याख्या- ‘धृत्या यया धारयते..... योगेनाव्यभिचारिण्या’- सांसारिक लाभ-हानि, जय-पराजय, सुख-दुःख, आदर-निरादर, सिद्धि-असिद्धि में सम रहने का नाम ‘योग’ (समता) है। परमात्मा को चाहने के साथ-साथ इस लोक में सिद्धि, असिद्धि, वस्तु, पदार्थ, सत्कार, पूजा आदि और परलोक में सुख-भोग को चाहना ‘व्यभिचार’ है; इस लोक तथा परलोक के सुख, भोग, वस्तु, पदार्थ आदि की किञ्चिन्मात्र भी इच्छा न रखकर केवल परमात्मा को चाहना ‘अव्यभिचार’ है। यह अव्यभिचार जिसमें होता है, वह धृति ‘अव्यभिचारिणी’ कहलाती है। अपनी मान्यता, सिद्धांत, लक्ष्य, भाव, क्रिया, वृत्ति, विचार आदि को दृढ़, अटल रखने की शक्ति का नाम ‘धृति’ है। योग अर्थात समता से युक्त इस अव्यभिचारिणी धृति के द्वारा मनुष्य मन, प्राण और इंद्रियों की क्रियाओं को धारण करता है। मन में राग-द्वेष को लेकर होने वाले चिन्तन से रहित होना, मन को जहाँ लगाना चाहें, वहाँ लग जाना और जहाँ से हटाना चाहें, वहाँ से हट जाना आदि मन की क्रियाओं को धृति के द्वारा धारण करना है। प्राणायाम करते हुए रेचक में पूरक न होना, पूरक में रेचक न होना और बाह्य कुम्भ में पूरक न होना तथा आभ्यन्तर कुम्भ में रेचक न होना अर्थात प्राणायाम के नियम से विरुद्ध श्वास-प्रश्वासों का न होना ही धृति के द्वारा प्राणों की क्रियाओं को धारण करना है। शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध- इन विषयों को लेकर इंद्रियों का उच्छृंखल न होना, जिस विषय में जैसे प्रवृत्त होना चाहें, उसमें प्रवृत्त होना और जिस विषय से निवृत्त होना चाहें, उससे निवृत्त होना ही धृति के द्वारा इंद्रियों की क्रियाओं को धारण करना है। ‘धृतिः सा पार्थ सात्त्विकी’- जिस धृति से मन, प्राण और इंद्रियों की क्रियाओं पर आधिपत्य हो जाता है, हे पार्थ। वह धृति सात्त्विकी है। संबंध- अब राजसी धृति के लक्षण बताते हैं। |
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