श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
यया तु धर्मकामार्थान्धृत्या धारयतेऽर्जुन।
व्याख्या- ‘यया तु धर्मकामार्थान्धृत्या........ सा पार्थ राजसी’- राजसी धारण-शक्ति से मनुष्य अपनी कामना-पूर्ति के लिए धर्म का अनुष्ठान करता है, काम अर्थात भोग-पदार्थों को भोगता है और अर्थ अर्थात धन का संग्रह करता है। अमावस्या, पूर्णिमा, व्यतिपात आदि अवसरों पर दान करना, तीर्थों में अन्नदान करना; पर्वों पर उत्सव मनाना; तीर्थ यात्रा करना; धार्मिक संस्थाओं में चंदा-चिट्ठा के रूप में कुछ चढ़ा देना; कभी कथा-कीर्तन, भागवत-सप्ताह आदि करवा लेना- यह सब केवल कामनापूर्ति के लिए करना ही ‘धर्म’ को धारण करना है।[1] सांसारिक भोग-पदार्थ तो प्राप्त होने ही चाहिए; क्योंकि भोग-पदार्थों से ही सुख मिलता है, संसार में कोई भी प्राणी ऐसा नहीं है, जो भोग-पदार्थों की कामना न करता हो; यदि मनुष्य भोगों की कामना न करे तो उसका जीवन ही व्यर्थ है- ऐसी धारणा के साथ भोग-पदार्थों की कामनापूर्ति में ही लगे रहना ‘काम’ को धारण करना है। धन के बिना दुनिया में किसी का भी काम नहीं चलता; धन से ही धर्म होता है; यदि पास में धन न हो तो आदमी धर्म कर ही नहीं सकता; जितने आयोजन किए जाते हैं, वे सब धन से ही तो होते हैं; आज जितने आदमी बड़े कहलाते हैं, वे सब धन के कारण ही तो बड़े बने हैं; धन होने से ही लोग आदर-सम्मान करते हैं; जिसके पास धन नहीं होता, उसको संसार में कोई पूछता ही नहीं; अतः धन का खूब संग्रह करना चाहिए- इस प्रकार धन में ही रचे-पचे रहना ‘अर्थ’ को धारण करना है। संसार में अत्यंत राग (आसक्ति) होने के कारण राजस पुरुष शास्त्र की मर्यादा के अनुसार जो कुछ भी शुभ काम करता है, उसमें उसकी यही कामना रहती है कि इस कर्म का मुझे इस लोक में सुख, आराम, मान, सत्कार आदि मिले और परलोक में सुख-भोग मिले। ऐसे फल की कामना वाले तथा संसार में अत्यंत आसक्त मनुष्य की धारण-शक्ति राजसी होती है। संबंध- अब तामसी धृति के लक्षण बताते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ धर्म का अनुष्ठान धन के लिए किया जाए और धन का खर्चा धर्म के लिए किया जाए, तो धर्म से धन और धन से धर्म- दोनों परस्पर बढ़ते रहते हैं। परंतु धर्म का अनुष्ठान और धन का खर्चा केवल कामनापूर्ति के लिए ही किया जाए तो धर्म (पुण्य) और धन- दोनों ही कामनापूर्ति करके नष्ट हो जाते हैं।
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