श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
‘अयथावत्प्रजानाति बुद्धिः सा पार्थ राजसी’- राग होने से राजसी बुद्धि में स्वार्थ, पक्षपात, विषमता आदि दोष आ जाते हैं। इन दोषों के रहते हुए बुद्धि धर्म-अधर्म, कार्य-अकार्य, भय-अभय, बन्ध-मोक्ष आदि के वास्तविक तत्त्व को ठीक-ठीक नहीं जान सकती। अतः किस वर्ण-आश्रम के लिए किस परिस्थिति में कौन सा धर्म कहा जाता है और कौन सा अधर्म कहा जाता है? वह धर्म किस वर्ण-आश्रम के लिए कर्तव्य हो जाता है और किसके लिए अकर्तव्य हो जाता है, किससे भय होता है और किससे मनुष्य अभय हो जाता है? इन बातों को जो बुद्धि ठीक-ठीक नहीं जान सकती, वह बुद्धि राजसी है। जब सांसारिक वस्तु, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति, क्रिया, पदार्थ आदि में राग (आसक्ति) हो जाता है, तो वह राग दूसरों के प्रति द्वेष पैदा करने वाला हो जाता है। फिर जिसमें राग हो जाता है उसके दोषों की ओर जिसमें द्वेष हो जाता है, उसके गुणों को मनुष्य नहीं देख सकता। राग और द्वेष- इन दोनों में संसार के साथ संबंध जुड़ता है। संसार के साथ संबंध जुड़ने पर मनुष्य संसार को नहीं जान सकता। ऐसे ही परमात्मा से अलग रहने पर मनुष्य परमात्मा को नहीं जान सकता। संसार से अलग होकर तो संसार को जान सकता है और परमात्मा से अभिन्न होकर ही परमात्मा को जान सकता है। वह अभिन्नता चाहे प्रेम से हो, चाहे ज्ञान से हो। परमात्मा से अभिन्न होने में सात्त्विकी बुद्धि ही काम करती है: क्योंकि सात्त्विकी बुद्धि में विवेक शक्ति जाग्रत रहती है। परंतु राजसी बुद्धि में वह विवेकशक्ति राग के कारण धुँधली सी रहती है। जैसे जल में मिट्टी घुल जाने से जल में स्वच्छता, निर्मलता नहीं रहती, ऐसे ही बुद्धि में रजोगुण आ जाने से बुद्धि में उतनी स्वच्छता, निर्मलता नहीं रहती। इसलिए धर्म-अधर्म आदि को समझने में कठिनता पड़ती है। राजसी बुद्धि होने पर मनुष्य जिस किसी विषय में प्रवेश करता है, उसको उस विषय को समझने में कठिनता पड़ती है। उस विषय के गुण दोषों को ठीक ठीक समझे बिना वह ग्रहण और त्याग को अपने आचरण में नहीं ला सकता अर्थात वह ग्राह्य वस्तु का ग्रहण नहीं कर सकता और त्याज्य वस्तु का त्याग नहीं कर सकता। संबंध- अब तामसी बुद्धि के लक्षण बताते हैं।
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