श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
यया धर्ममधर्म च कार्यं चाकार्यमेव च ।
व्याख्या- ‘यया धर्ममधर्म च’- शास्त्रों ने जो कुछ भी विधान किया है, वह ‘धर्म’ है अर्थात शास्त्रों ने जिसकी आज्ञा दी है और जिससे परलोक में सद्गति होती है, वह धर्म है। शास्त्रों ने जिसका निषेध किया है, वह ‘अधर्म’ है अर्थात शास्त्रों ने जिसकी आज्ञा नहीं दी है और जिससे परलोक में दुर्गति होती है, वह अधर्म है। जैसे, अपने माता-पिता, बड़े-बूढ़ों की सेवा करने में, दूसरों को सुख पहुँचाने में, दूसरों का हित करने की चेष्टा में अपने तन, मन, धन, योग्यता, पद, अधिकार, सामर्थ्य आदि को लगा देना ‘धर्म’ है। ऐसे ही कुआँ-बावड़ी खुदवाना, धर्मशाला-औषधालय बनवाना, प्याऊ-सदावर्त चलाना; देश, ग्राम, मोहल्ले के अनाथ गरीब बालकों की और समाज की उन्नति के लिए अपनी कहलाने वाली चीजों को आवश्यकतानुसार उनकी ही समझकर निष्कामभाव से उदारतापूर्वक खर्च करना ‘धर्म’ है। इसके विपरीत अपने स्वार्थ, सुख, आराम के लिए दूसरों की धन-संपत्ति, हक, पद, अधिकार छीनना; दूसरों का अपकार, अहित, हत्या आदि करना; अपने तन, मन, धन, योग्यता, पद, अधिकार आदि के द्वारा दूसरों को दुःख देना ‘अधर्म’ है। वास्तव में धर्म वह है, जो जीव का कल्याण कर दे और अधर्म वह है, जो जीव को बन्धन में डाल दे। ‘कार्य चाकार्यमेव च’- वर्ण, आश्रम, देश, काल, लोक-मर्यादा, परिस्थिति आदि के अनुसार शास्त्रों ने हमारे लिए जिस कर्म को करने की आज्ञा दी है, वह कर्म हमारे लिए ‘कर्तव्य’ है। अवसर पर प्राप्त हुए कर्तव्य का पालन न करना तथा न करने लायक काम को करना ‘अकर्तव्य’ है। जैसे, भिक्षा मांगना, यज्ञ, विवाह आदि कराना और उनमें दान-दक्षिणा लेना आदि कर्म ब्राह्मण के लिए तो कर्तव्य हैं, पर क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के लिए अकर्तव्य हैं। इसी प्रकार शास्त्रों ने जिन-जिन वर्ण और आश्रमों के लिए जो-जो कर्म बताये हैं, वे सब उन-उनके लिए कर्तव्य है; और जिनके लिए निषेध किया है, उनके लिए वे सब अकर्तव्य हैं। जहाँ नौकरी करते हैं, वहाँ ईमानदारी से अपना पूरा समय देना, कार्य को सुचारू रूप से करना, जिस तरह से मालिक का हित हो, ऐसा काम करना- ये सब कर्मचारियों के लिए ‘कर्तव्य’ हैं। अपने स्वार्थ, सुख और आराम में फँसकर कार्य में पूरा समय न लगाना, कार्य को तत्परता से न करना, थोड़ी- सी घूस (रिश्वत) मिलने से मालिक का बड़ा नुकसान कर देना, दस-पाँच रुपयों के लिए मालिक का अहित कर देना- ये सब कर्मचारियों के लिए ‘अकर्तव्य हैं।’ राजकीय जितने अफसर हैं, उनको राज्य का प्रबंध करने के लिए, सबका हित करने के लिए ही ऊँचे पर रखा जाता है। इसीलिए अपने स्वार्थ और अभिमान का त्याग करके जिस प्रकार सब लोगों का हित हो सकता है, सबको मुख, आराम, शांति मिल सकती है- ऐसे कामों को करना उनके लिए ‘कर्तव्य’ है। अपने तुच्छ स्वार्थ में आकर राज्य का नुकसान कर देना, लोगों को दुःख देना आदि उनके लिए ‘अकर्तव्य’ है। सात्त्विकी बुद्धि में कही हुई प्रवृत्ति-निवृत्ति, भय-अभय और बंध-मोक्ष को भी यहाँ ‘एव च’ पदों से ले लेना चाहिए। |
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