श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
‘बन्धं मोक्षं य या वेत्ति’- जो बाहर से तो यज्ञ, दान, तीर्थ, व्रत आदि उत्तम से उत्तम कार्य करता है; परंतु भीतर से असत् जड नाशवान पदार्थों को और स्वर्ग आदि लोकों को चाहता है, उसके लिए वे सभी कर्म ‘बन्ध’ अर्थात बन्धनकारक ही हैं। केवल परमात्मा से ही संबंध रखना, परमात्मा के सिवाय कभी किसी अवस्था में असत् संसार के साथ लेशमात्र भी संबंध न रखना ‘मोक्ष’ अर्थात मोक्षदायक है। अपने को जो वस्तुएँ नहीं मिली हैं, उनकी कामना होने से मनुष्य उनके अभाव का अनुभव करता है। वह अपने को उन वस्तुओं के परतंत्र मानता है और वस्तुओं के मिलने पर अपने को स्वतंत्र मानता है। वह समझता है तो यह है कि मेरे पास वस्तुएँ होने से मैं स्वतंत्र हो गया हूँ, पर हो जाता है उन वस्तुओं के परतंत्र! वस्तुओं के अभाव और वस्तुओं के भाव- इन दोनों की परतंत्रता में इतना ही फर्क पड़ता है कि वस्तुओं के अभाव में परतंत्रता दीखती है, खटकती है और वस्तुओं के होने पर वस्तुओं की परतंत्रता परतंत्रता के रूप में दीखती ही नहीं; क्योंकि उस समय मनुष्य अंधा हो जाता है। परंतु हैं ये दोनों ही परतंत्रता, और परतंत्रता ही बंधन है। अभाव की परतंत्रता प्रकट विषय है और भाव की परतंत्रता छिपा हुआ मीठा विष है, पर हैं दोनों ही विष। विष तो मारने वाला ही होता है। निष्कर्ष यह निकला कि सांसारिक वस्तुओं की कामना से ही बन्धन होता है और परमात्मा के सिवाय किसी वस्तु, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति, देश, काल आदि की कामना न होने से मुक्ति होती है।[1] यदि मन में कामना है तो वस्तु पास में हो तो बन्धन और पास में न तो हो तो बन्धन! यदि मन में कामना नहीं है तो वस्तु पास में हो तो मुक्ति और पास में न हो तो मुक्ति! ‘बुद्धिः सा पार्थ सात्त्विकी’- इस प्रकार जो प्रवृत्ति-निवृत्ति, कार्य-अकार्य, भय-अभय और बंधमोक्ष के वास्तविक तत्त्व को जानती है, वह बुद्धि सात्त्विकी है। इनके वास्तविक तत्त्व को जानना क्या है? प्रवृत्ति निवृत्ति, कार्य-अकार्य, भय-अभय और बन्ध-मोक्ष- इनको गहरी रीति से समझकर जिसके साथ वास्तव में हमारा संबंध नहीं है, उस संसार के साथ संबंध न मानना और जिसके साथ हमारा स्वतः सिद्ध संबंध है, ऐसे (प्रवृत्ति-निवृत्ति आदि के आश्रय तथा प्रकाशक) परमात्मा को तत्त्व से ठीक-ठीक जानना- यही सात्त्विकी बुद्धि के द्वारा वास्तविक तत्त्व को ठीक-ठीक जानना है। संबंध- अब राजसी बुद्धि के लक्षण बताते हैं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ एक कामना होती है और एक आवश्यकता होती है। संसार की कामना होती है और परमात्मा की आवश्यकता। कामना की कभी पूर्ति होती ही नहीं, उसकी तो निवृत्ति होती है, पर आवश्यकता की पूर्ति ही होती है। परमात्मा की आवश्यकता भी संसार की कामना होने से ही पैदा होती है। कामना का अत्यंत अभाव होने पर आवश्यकता रहती ही नहीं अर्थात परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है।
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