श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
प्रवृतिं च निवृत्तिं च कार्याकार्ये भयाभये ।
व्याख्या- ‘प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च’- साधक मात्र की प्रवृत्ति और निवृत्ति- ये दो अवस्थाएँ होती हैं। कभी वह संसार का काम-धंधा करता है, तो यह प्रवृत्ति-अवस्था है और कभी संसार का काम-धंधा छोड़कर एकान्त में भजन ध्यान करता है, तो यह निवृत्ति-अवस्था है। परंतु इन दोनों में सांसारिक कामनासहित प्रवृत्ति और वासनासहित निवृत्ति[1]- ये दोनों ही अवस्थाएँ ‘प्रवृत्ति’ हैं अर्थात संसार में लगाने वाली हैं, तथा सांसारिक कामनारहित प्रवृत्ति और वासनारहित निवृत्ति- ये दोनों ही अवस्थाएँ ‘निवृत्ति’ हैं अर्थात परमात्मा की तरफ ले जाने वाली है। इसलिए साधक इनको ठीक-ठीक जानकर कामना-वासना-रहित प्रवृत्ति और निवृत्ति को ही ग्रहण करें। वास्तव में गहरी दृष्टि से देखा जाए तो कामना-वासना-रहित प्रवृत्ति और निवृत्ति भी यदि अपने सुख, आराम आदि के लिए की जाएँ तो वे दोनों ही ‘प्रवृत्ति’ हैं; क्योंकि वे दोनों ही बाँधने वाली हैं अर्थात उनसे अपना व्यक्तित्व नहीं मिटता। परंतु यदि कामना-वासनारहित प्रवृत्ति और निवृत्ति- दोनों केवल दूसरों के सुख, आराम और हित के लिए ही की जाएँ, तो वे दोनों ही ‘निवृत्ति’ हैं; क्योंकि उन दोनों से ही अपना व्यक्तित्व नहीं रहता। वह व्यक्तित्व कब नहीं रहता? जब प्रवृत्ति और निवृत्ति जिसके प्रकाश से प्रकाशित होती हैं तथा जो प्रवृत्ति और निवृत्ति से रहित है, उस प्रकाशक अर्थात तत्त्व की प्राप्ति के उद्देश्य से ही प्रवृत्ति और निवृत्ति की जाए। प्रवृत्ति तो की जाए प्राणिमात्र की सेवा के लिए और निवृत्ति की जाय परम विश्राम अर्थात स्वरूप-स्थिति के लिए। ‘कार्याकार्ये’- शास्त्र, वर्ण, आश्रम की मर्यादा के अनुसार जो काम किया जाता है, वह ‘कार्य’ है और शास्त्र आदि की मर्यादा से विरुद्ध जो काम किया जाता है वह ‘अकार्य’ है। जिसको हम कर सकते हैं, जिसको जरूर करना चाहिए। और जिसको करने से जीव का जरूर कल्याण होता है, वह ‘कार्य’ अर्थात कर्तव्य कहलाता है; और जिसको हमें नहीं करना चाहिए तथा जिससे जीव का बंधन होता है, वह ‘अकार्य’ अर्थात अकर्तव्य कहलाता है। जिसको हम नहीं कर सकते, वह अकर्तव्य नहीं कहलाता, वह तो अपनी असामर्थ्य है। ‘भयाभये’- भय और अभय के कारण को देखना चाहिए। जिस कर्म से अभी और परिणाम में अपना और दुनिया का अनिष्ट होने की संभावना है, वह कर्म ‘भय’ अर्थात भयदायक है और जिस कर्म से अभी और परिणाम में अपना और दुनिया का हित होने की संभावना है, वह कर्म ‘अभय’ अर्थात सबको अभय करने वाला है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ प्रवृत्ति को छोड़कर कोई एकान्त में भजन-ध्यान करता है तो वहाँ उसके सामने द्रव्य, पदार्थ तो नहीं है, पर ‘लोग मेरे को ज्ञानी, ध्यानी, साधक, समझेंगे, तो मेरा आदर-सत्कार होगा’ इस प्रकार भीतर एक सूक्ष्म इच्छा रहती है, जिसे ‘वासना’ कहते हैं।
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