श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
पृथक्त्वेन तु यज्ज्ञानं नानाभावान्पृग्विधान् । अर्थ- किन्तु जो ज्ञान अर्थात जिस ज्ञान के द्वारा मनुष्य सम्पूर्ण भूतों में भिन्न-भिन्न प्रकार के नाना भावों को अलग-अलग जानता है, उस ज्ञान को तू राजस जान। व्याख्या- ‘पृथक्त्वेन तु[1] यज्ज्ञानं नानाभावान् पृथग्विधान्’- राजस ज्ञान में ‘राग’ की मुख्यता होती है- ‘राजो रागात्मकं विद्धि’।[2] राग का यह नियम है कि वह जिसमें आ जाता है, उसमें किसी के प्रति आसक्ति, प्रियता पैदा करा देता है और किसी के प्रति द्वेष पैदा करा देता है। इस राग के कारण ही मनुष्य, देवता, यक्ष-राक्षस, पशु-पक्षी, कीट-पतंग, वृक्ष-लता आदि जितने भी चर-अचर प्राणी हैं, उन प्राणियों की विभिन्न आकृति, स्वभाव, नाम, रूप, गुण आदि को लेकर राजस ज्ञान वाला मनुष्य उनमें रहने वाली एक ही अविनाशी आत्मा को तत्त्व से अलग-अलग समझता है। ‘वेत्ति सर्वेषु भूतेषु तज्ज्ञानं विद्धि राजसम्’- इसी तरह जिस ज्ञान से मनुष्य अलग-अलग शरीर में अंतःकरण, स्वभाव, इंद्रियाँ, प्राण आदि के संबंध से प्राणियों को भी अलग-अलग मानता है, वह ज्ञान ‘राजस’ कहलाता है। राजस ज्ञान में जड-चेतन का विवेक नहीं होता। संबंध- अब तामस ज्ञान का वर्णन करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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