श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
मार्मिक बात संसार का ज्ञान इंद्रियों से होता है, इंद्रियों का ज्ञान बुद्धि से होता है और बुद्धि का ज्ञान ‘मैं’ से होता है। वह ‘मैं’ बुद्धि, इंद्रियाँ और विषय- इन तीनों को जानता है। परंतु उस ‘मैं’ का भी एक प्रकाशक है, जिसमें ‘मैं’ का भी भान होता है। वह प्रकाश सर्वदेशीय और असीम है, जबकि ‘मैं’ एकदेशीय और सीमित है। उस प्रकाश में जैसे ‘मैं’ का भान होता है, वैसे ही ‘तू’, ‘यह’ और ‘वह’ का भी भान होता है। वह प्रकाश किसी का भी विषय नहीं है। वास्तव में वह प्रकाश निर्गुण ही है; परंतु व्यक्ति विशेष में रहने वाला होने से (वृत्तियों के संबंध से) उसे ‘सात्त्विक’ ज्ञान कहते हैं। इस सात्त्विक ज्ञान को दूसरे ढंग से इस प्रकार समझना चाहिए- ‘मैं’, ‘तू’, ‘यह’ और ‘वह’- ये चारों ही किसी प्रकाश में काम करते हैं। इन चारों के अंतर्गत संपूर्ण प्राणी आ जाते हैं, जो विभक्त हैं; परंतु इनका जो प्रकाशक है, वह अविभक्त (विभागरहित) है। बोलने वाला ‘मैं’, उसके सामने सुनने वाला ‘तू’ और पास वाला ‘यह’ तथा दूर वाला ‘वह’ कहा जाता है अर्थात बोलने वाला अपने को ‘मैं’ कहता है, सामने वाले को ‘तू’ कहता है, पास वाले को ‘यह’ कहता है और दूर वाले को ‘वह’ कहता है। जो ‘तू’ बना हुआ था, वह ‘मैं’ हो जाए तो ‘मैं’ बना हुआ ‘तू’ हो जाएगा और ‘यह’ तथा ‘वह’ वही रहेंगे। इसी प्रकार ‘यह’ कहलाने वाला अगर ‘मैं’ बन जाय तो ‘तू’ कहलाने वाला ‘यह’ बन जाएगा और ‘मैं’ कहलाने वाला ‘तू’ बन जाएगा। ‘वह’ परोक्ष होने से अपनी जगह ही रहा। अब ‘वह’ कहलाने वाला ‘मैं’ बन जाएगा तो उसकी दृष्टि में ‘मैं’, ‘तू’ और ‘यह’ कहलाने वाले सब ‘वह’ हो जाएंगे।[1] इस प्रकाश में ‘मैं’, ‘तू’, ‘यह’ और ‘वह’ का भान हो रहा है। दृष्टि में चारों ही बन सकते हैं। इससे यह सिद्ध हुआ कि ‘मैं’, ‘तू’, ‘यह’ और ‘वह’- ये चारों ही एक दूसरे की उस प्रकाश में ‘मैं’, ‘तू’, ‘यह’ और ‘वह’- ये चारों ही नहीं हैं, प्रत्युत उसी से इन चारों को सत्ता मिलती है। अपनी मान्यता के कारण ‘मैं’, ‘तू’, ‘यह’, ‘वह’ का तो भान होता है, पर प्रकाश का भान नहीं होता। वह प्रकाशक सबको प्रकाशित करता है, स्वयंप्रकाश स्वरूप है और सदा ज्यों का त्यों रहता है। ‘मैं’, ‘तू’, ‘यह’ और ‘वह’- यह सब विभक्त प्राणियों का स्वरूप है और जो वास्तविक प्रकाशक है, वह विभागरहित है। यही वास्तव में ‘सात्त्विक ज्ञान’ है। विभाग वाली, परिवर्तनशील और नष्ट होने वाली जितनी वस्तुएँ हैं, यह ज्ञान उन सबका प्रकाश है और स्वयं भी निर्मिल तथा विकाररहित है- ‘तत्र सत्त्वं निर्मलत्वात् प्रकाशकमनामयम्’।[2] इसलिए इस ज्ञान को ‘सात्त्विक’ कहा जाता है। वास्तव में यह ‘सात्त्विक ज्ञान’ प्रकाश्य की दृष्टि (संबंध) से ‘प्रकाशक’ और विभक्त की दृष्टि से ‘अविभक्त’ कहा जाता है। प्रकाश्य और विभक्त से रहित होने पर यह निर्गुण, निरपेक्ष ‘वास्तविक ज्ञान’ ही है। संबंध- अब राजस ज्ञान का वर्णन करते हैं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ उदाहरण के रूप में- राम, श्याम, गोविंद और गोपाल- ये चार व्यक्ति है। राम और श्याम एक दूसरे के सामने हैं, गोविंद उनके पास है और गोपाल उनसे दूर है। राम अपने को ‘मैं’ कहता है, अपने सामने वाले श्याम को ‘तू’ कहता है, पास वाले गोविंद को ‘यह’ कहता है और दूर वाले गोपाल को ‘वह’ कहता है। अब यदि श्याम अपने को ‘मैं’ कहे तो राम को वह ‘तू’ कहेगा, गोविंद को ‘यह’ कहेगा तथा गोपाल को ‘वह’ कहेगा। इसी तरह अगर गोविंद अपने को ‘मैं’ कहे त वह श्याम को ‘यह’ कहेगा और राम को ‘तू’ कहेगा अथवा श्याम को ‘तू’ और राम को ‘यह’ कहेगा, तथा दूर वाले गोपाल को ‘वह’ कहेगा। अब अगर गोपाल अपने को ‘मैं’ कहे तो वह राम, श्याम और गोविंद- तीनों को ‘वह’ कहेगा। इस प्रकार राम, श्याम, गोविंद और गोपाल- ये चारों ही एक-दूसरे की दृष्टि में ‘मैं’, ‘तू’, ‘यह’ और ‘वह’ बन सकते हैं।
- ↑ गीता 14:6
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