श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
सर्वभूतेषु येनैकं भावमव्ययमीक्षते । अर्थ- जिस ज्ञान से मनुष्य पृथक-पृथक सब भूतों में एक अविनाशी परमात्म-भाव को विभागरहित समभाव से स्थित देखता है, उस ज्ञान को तो तू सात्त्विक जान। व्याख्या- ‘सर्वभूतेषु येनैकं.......... अविभक्तं विभक्तेषु’- व्यक्ति, वस्तु आदि में जो ‘है’ पन दीखता है, वह उन व्यक्ति, वस्तु आदि का नहीं है, प्रत्युत सबमें परिपूर्ण परमात्मा का ही है। उन व्यक्ति, वस्तु आदि की स्वतंत्र सत्ता ही नहीं है; क्योंकि उनमें प्रतिक्षण परिवर्तन हो रहा है। कोई भी व्यक्ति, वस्तु आदि ऐसी नहीं है, जिसमें परिवर्तन न होता हो; परंतु अपनी अज्ञता (बेसमझी) से उनकी सत्ता दीखती है। जब अज्ञता मिट जाती है, ज्ञान हो जाता है, तब साधक की दृष्टि उस अविनाशी तत्त्व की तरफ ही जाती है, जिसकी सत्ता से यह सब सत्तावान हो रहा है। ज्ञान होने पर साधक की दृष्टि परिवर्तनशील वस्तुओं को भेदकर परिवर्तनरहित तत्त्व की ओर ही जाती है।[1] फिर वह विभक्त अर्थात अलग-अलग वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति, घटना आदि में विभागरहित एक ही तत्त्व को देखता है।[2] तात्पर्य यह है कि अलग-अलग वस्तु, व्यक्ति आदि का अलग-अलग ज्ञान और यथायोग्य अलग-अलग व्यवहार होते हुए भी वह इन विकारी वस्तुओं में उस स्वतः सिद्ध निर्विकार एक तत्त्व को देखता है। उसके देखने की यही पहचान है कि उसके अंतःकरण में राग द्वेष नहीं होते। ‘तज्ज्ञानं विद्धि सात्त्विकम्’- उस ज्ञान को तू सात्त्विक जान। परिवर्तनशील वस्तुओं, वृत्तियों के संबंध से ही इसे ‘सात्त्विक ज्ञान’ कहते हैं। संबंधरहित होने पर यही ज्ञान ‘वास्तविक बोध’ कहलाता है, जिसको भगवान ने सब साधनों से जानने योग्य ज्ञेय-तत्त्व बताया है- ‘ज्ञेयं यत्तत्प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वामृतमश्रुते’।[3] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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