श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
यत्तु कृत्स्नवदेकस्मिन्कार्ये सक्तमहैतुकम् । अर्थ- परन्तु जो ज्ञान एक कार्य रूप शरीर में ही सम्पूर्ण के सदृश आसक्त है; तथा जो युक्तिरहित, वास्तविक ज्ञान से रहित और तुच्छ है, वह तामस कहा गया है। व्याख्या- ‘यत्तु[1] कृत्स्रवदेकस्मिन्कार्ये सक्तम्’- तामस मनुष्य एक ही शरीर में संपूर्ण की तरह आसक्त रहता है अर्थात उत्पन्न और नष्ट होने वाले इस पांचभौतिक शरीर को ही अपना स्वरूप मानता है। वह मानता है कि मैं ही छोटा बच्चा था, मैं ही जवान हूँ और मैं ही बूढ़ा हो जाऊँगा; मैं भोगी, बलवान और सुखी हूँ; मैं धनी और बड़े कुटुम्ब वाला हूँ; मेरे समान दूसरा कौन है; इत्यादि। ऐसी मान्यता मूढ़ता के कारण ही होती है- ‘इत्यज्ञानविमोहिताः’।[2] ‘अहैतुकम्’- तामस मनुष्य की मान्यता युक्ति और शास्त्रप्रमाण से विरुद्ध होती है। यह शरीर हरदम बदल रहा है, शरीरादि वस्तुमात्र अभाव में परिवर्तित हो रही है, दृश्यमात्र अदृश्य हो रहा है और इनमें तू सदा ज्यों का त्यों रहता है; अतः यह शरीर और तू एक कैसे हो सकते हैं?- इस प्रकार की युक्तियों को वह स्वीकार नहीं करता। ‘अतत्त्वार्थवदल्पं च’- यह शरीर और मैं दोनों अलग-अलग हैं- इस वास्तविक ज्ञान- (विवेक) से वह रहित है। उसकी समझ अत्यंत तुच्छ है अर्थात तुच्छता की प्राप्ति कराने वाली है। इसलिए इसको ‘ज्ञान’ कहने में भगवान को संकोच हुआ है। कारण कि तामस पुरुष में मूढ़ता की प्रधानता होती है। मूढ़ता और ज्ञान का आपस में विरोध है। अतः भगवान ने ‘ज्ञान’ पद न देकर ‘यत्’ और ‘तत्’ पद से ही काम चलाया है। ‘तत्तामसमुदाहृतम्’- युक्तिरहित, अल्प और अत्यंत तुच्छ समझ को ही महत्त्व देना ‘तामस’ कहा गया है। जब तामस समझ ‘ज्ञान’ है ही नहीं और भगवान को भी इसको ‘ज्ञान’ कहने में संकोच हुआ है, तो फिर इसका वर्णन ही क्यों किया गया? कारण कि भगवान ने उन्नीसवें श्लोक में ज्ञान के त्रिविध भेद कहने का उपक्रम किया है, इसलिए सात्त्विक और राजस-ज्ञान का वर्णन करने के बाद तामस समझ को भी कहने की आवश्यकता थी। संबंध- अब भगवान सात्त्विक कर्म का वर्णन करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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