श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
नियतं सग्ङरहितमरागद्वेषत: कृतम् । अर्थ- जो कर्म शास्त्रविधि से नियत किया हुआ और कर्तापन के अभियान से रहित हो तथा फल न चाहने वाले पुरुष द्वारा बिना राग-द्वेष के किया गया हो, वह सात्त्विक कहा जाता है। व्याख्या- ‘नियतं संगरहितम्..... सात्त्विकमुच्यते’- जिस व्यक्ति के लिए वर्ण और आश्रम के अनुसार जिस परिस्थित में और जिस समय शास्त्रों ने जैसा करने के लिए कहा है, उसके लिए वह कर्म ‘नियत’ हो जाता है। यहाँ ‘नियतम्’ पद से एक तो कर्मों का स्वरूप बताया है और दूसरे, शास्त्रनिषिद्ध कर्म का निषेध किया है। ‘संगरहितम्’ पद का तात्पर्य है कि वह नियत-कर्म कर्तृत्वाभिमान से रहित होकर किया जाए। कर्तृत्वाभिमान से रहित कहने का भाव है कि जैसे वृक्ष आदि में मूढ़ता होने के कारण उनको कर्तृत्व का भान नहीं होता, पर उनकी भी ऋतु आने पर पत्तों का झड़ना, नये पत्तों का निकलना, शाखा कटने पर घाव का मिल जाना, शाखाओं का बढ़ना, फल-फूल का लगना आदि सभी क्रियाएँ समष्टि शक्ति के द्वारा अपने-आप ही होती है; ऐसे ही इन सभी शरीरों का बढ़ना-घटना, खाना-पीना, चलना-फिरना आदि सभी क्रियाएँ भी समष्टि शक्ति के द्वारा अपने आप हो रही हैं। इन क्रियाओं के साथ न अभी कोई संबंध है, न पहले कोई संबंध था और न आगे ही कोई संबंध होगा। इस प्रकार जब साधक को प्रत्यक्ष अनुभव हो जाता है, तो फिर उसमें कर्तृत्व नहीं रहता। कर्तृत्व न रहने पर उसके द्वारा जो कर्म होता है, वह संगरहित अर्थात कर्तृत्वाभिमानरहित ही होता है। यहाँ सांख्य-प्रकरण में कर्तृत्व का त्याग मुख्य होने से और आगे ‘अरागद्वेषतः कृतम्’ पदों में भी आसक्ति के त्याग की बात आने से यहाँ ‘संगरहितम्’ पद का अर्थ कर्तृत्व- अभिमानरहित लिया गया है[1] ‘अरागद्वेषतः कृतम्’ पदों का तात्पर्य है कि राग-द्वेष से रहित हो करके कर्म किया जाए अर्थात कर्म का ग्रहण रागपूर्वक न हो और कर्म का त्याग द्वेषपूर्वक न हो तथा कर्म करने के जितने साधन (शरीर, इंद्रियाँ, अंतःकरण आदि) हैं, उनमें भी राग द्वेष न हो। ‘अरागद्वेषतः’ पद से वर्तमान में राग का अभाव बताया है और ‘अफलप्रेप्सुना’ पद से भविष्य में राग का अभाव बताया है। तात्पर्य यह है कि भविष्य में मिलने वाले फल की इच्छा से रहित मनुष्य के द्वारा कर्म किया जाए अर्थात क्रिया और पदार्थों से निर्लिप्त रहते हुए असंगतापूर्वक कर्म किया जाए तो वह सात्त्विक कहा जाता है। इस सात्त्विक कर्म में सात्त्विकता तभी तक है, जब तक अत्यंत सूक्ष्मरूप से भी प्रकृति के साथ संबंध है। जब प्रकृति से सर्वथा संबंध-विच्छेद हो जाता है, तब यह कर्म ‘अकर्म’ हो जाता है। संबंध- अब राजस कर्म का वर्णन करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ यहाँ संन्यास (सांख्ययोग) में ‘संगरहितम्’ पद से कर्तृत्व-अभिमान से रहित होने की बात आयी है और त्याग- (कर्मयोग) में ‘संग त्यक्त्वा फलं चैव’ (गीता 18:9) पदों से आसक्ति तथा फलेच्छा से रहित होने की बात आयी है। इसका तात्पर्य यह है कि सांख्ययोग का शरीर में थोड़ा भी अभिमान रहेगा तो उसका शरीर के साथ संबंध बना रहेगा, जो कि तत्त्वप्राप्ति में बाधक होगा; परंतु कर्मयोगी का शरीर में थोड़ा अभिमान रह भी जाएगा तो वह सांख्ययोगी की तरह उतना बाधक नहीं होगा। कारण कि (कोई भी कर्म अपने लिए न करने से) कर्मयोगी का कर्तृत्व-अभिमान केवल कर्तव्य-पालन के लिए ही होता है अर्थात वह जिस समय जो कार्य करता है, उसी समय उसमें तात्कालिक कर्तृत्व-अभिमान रहता है। कार्य का अंत होने पर वह कर्तृत्व-अभिमान उसी कार्य में लीन हो जाता है।
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