श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
ऐसे ही अभी पापात्मा जो सुख भोग रहा है, यह भी पूर्व के किसी जन्म में किए हुए पुण्य का फल है, अभी किए हुए पाप का नहीं। इसमें एक तात्त्विक बात और है। कर्मों के फलस्वरूप में जो अनुकूल परिस्थिति आती है, उससे सुख ही होता है और प्रतिकूल परिस्थिति आती है, उससे दुःख ही होता है- ऐसी बात है नहीं। जैसे, अनुकूल परिस्थिति आने पर मन में अभिमान होता है, छोटों से घृणा होती है, अपने से अधिक संपत्ति वालों को देखकर उनसे ईर्ष्या होती है, असहिष्णुता होती है, अंतःकरण में जलन होती है और मन में ऐसे दुर्भाव आते हैं कि उनकी संपत्ति कैसे नष्ट हो तथा वक्त पर उनको नीचा दिखाने की चेष्टा भी होती है। इस तरह सुख-सामग्री और धन-संपत्ति पास में रहने पर भी वह सुखी नहीं हो सकता। परंतु बाहरी सामग्री को देखकर अन्य लोगों को यह भ्रम होता है कि वह बड़ा सुखी है। ऐसे ही किसी विरक्त और त्यागी मनुष्य को देखकर भोग-सामग्री वाले मनुष्य को उस पर दया आती है कि बेचारे के पास धन-संपत्ति आदि सामग्री नहीं है, बेचारा बड़ा दुःखी है। परंतु वास्तव में विरक्त के मन में बड़ी शांति और बड़ी प्रसन्नता रहती है। वह शांति और प्रसन्नता धन के कारण किसी धनी में नहीं रह सकती। इसलिए धन का होना मात्र सुख नहीं है और धन का अभावमात्र दुःख नहीं है। सुख नाम हृदय की शांति और प्रसन्नता का है और दुःख नाम हृदय की जलन और संताप का है। पुण्य और पाप का फल भोगने में एक नियम नहीं है। पुण्य तो निष्कामभाव से भगवान के अर्पण करने से समाप्त हो सकता है; परंतु पाप भगवान के अर्पण करने से समाप्त नहीं होता। पाप का फल तो भोगना ही पड़ता है; क्योंकि भगवान की आज्ञा के विरुद्ध किए हुए कर्म भगवान के अर्पण कैसे हो सकता है? और अर्पण करने वाला भी भगवान के विरुद्ध कर्मों को भगवान के अर्पण कैसे कर सकता है? प्रत्युत भगवान की आज्ञा के अनुसार किए कर्म ही भगवान के अर्पण होते हैं। इस विषय मे एक कहानी आती है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ महाभारत, वनपर्व में एक कथा आती है। एक दिन द्रौपदी ने युधिष्ठिर जी महाराज से कहा कि आप धर्म को छोड़कर एक कदम भी आगे नहीं रखते, पर आप वनवास में दुःख पा रहे हैं और दुर्योधन धर्म की किञ्चिन्मात्र भी परवाह न करके केवल स्वार्थ-परायण हो रहा है, पर वह राज्य कर रहा है, आराम से रह रहा है और सुख भोग रहा है? ऐसी शंका करने पर युधिष्ठिर जी महाराज ने कहा कि जो सुख पाने की इच्छा से धर्म का पालन करते हैं, वे धर्म के तत्त्व को जानते ही नहीं। वे तो पशुओं की तरह सुख-भोग के लिए लोलुप और दुःख से भयभीत रहते हैं, फिर बेचारे धर्म के तत्त्व को कैसे जानें। इसलिए मनुष्य की मनुष्यता इसी में है कि वे अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थिति की परवाह न करके शास्त्र के आज्ञानुसार केवल अपने धर्म (कर्तव्य) का पालन करते रहें।
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