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श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
एक राजा अपनी प्रजा-सहित हरिद्वार गया। उसके साथ में सब तरह के लोग थे। उनमें एक चमार भी था। उस चमार ने सोचा कि ये बनिए लोग बड़े चतुर होते हैं। ये अपनी बुद्धिमानी से धनी बन गए हैं। अगर हम भी उनकी बुद्धिमानी के अनुसार चलें तो हम भी धनी बन जाएँ! ऐसा विचार करके वह एक चतुर बनिए की क्रियाओं पर निगरानी रखकर चलने लगा। जब हरिद्वार के ब्रह्मकुण्ड में पंडा दान-पुण्य का संकल्प कराने लगा, तब उस बनिए ने कहा- ‘मैंने अमुक ब्राह्मण को सौ रुपए उधार दिए थे, आज मैं उनको दानरूप में श्रीकृष्णार्पण करता हूँ।’ पण्डे ने संकल्प भरवा दिया। चमार ने देखा कि इसने एक कौड़ी भी नहीं दी और लोगों में प्रसिद्ध हो गया कि इसने सौ रुपयों का दान कर दिया, कितना बुद्धिमान है। मैं भी इससे कम नहीं रहूँगा। जब पण्डे ने चमार से संकल्प भरवाना शुरु किया, तब चमार ने कहा- ‘अमुक बनिए ने मुझे सौ रुपए उधार दिए थे तो उन सौ रुपयों को मैं श्रीकृष्णार्पण करता हूँ।’ उसकी ग्रामीण बोली को पण्डा पूरी तरह समझा नहीं और संकल्प भरवा दिया। इससे चमार बड़ा खुश हो गया कि मैंने भी बनिए के समान सौ रुपयों का दान-पुण्य कर दिया।
सब घर पहुँचे। समय पर खेती हुई। ब्राह्मण और चमार के खेतों में खूब अनाज पैदा हुआ। ब्राह्मण देवता ने बनिए से कहा- ‘सेठ! आप चाहें तो सौ रुपयों का अनाज ले लो, इससे आपको नफा भी हो सकता है। मुझे तो आपका कर्जा चुकाना है।’ बनिए ने कहा- ‘ब्राह्मण देवता! जब मैं हरिद्वार गया था, तब मैंने आपको उधार दिए हुए सौ रुपये दान कर दिये।’ ब्राह्मण बोला- ‘सेठ! मैंने आपसे सौ रुपए उधार लिए हैं, दान नहीं लिये। इसलिए इन रुपयों को मैं रखना नहीं चाहता, ब्याज सहित पूरा चुकाना चाहता हूँ।’ सेठ ने कहा- ‘आप देना ही चाहते हैं तो अपनी बहन अथवा कन्या को दे सकते हैं। मैंने सौ रुपए भगवान के अर्पण कर दिए हैं, इसलिए मैं तो लूँगा नहीं।’ अब ब्राह्मण और क्या करता? वह अपने घर लौट गया।
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