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श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
श्यामलाल ने रामलाल को सौ रुपए उधार दिए। रामलाल ने वायदा किया कि अमुक महीने में ब्याज सहित रुपए लौटा दूँगा। महीना बीत गया, पर रामलाल ने रुपए नहीं लौटाए तो श्यामलाल रामलाल के घर पहुँचा और बोला- ‘तुमने वायदे के अनुसार रुपए नहीं दिए। अब दो।’ रामलाल ने कहा- अभी मेरे पास रुपए नहीं है, परसों दे दूँगा।’ श्यामलाल तीसरे दिन पहुँचा और बोला- ‘लाओ मेरे रुपए।’ रामलाल ने कहा- ‘अभी मैं आपके पैसे नहीं जुटा सका, परसों आपके रुपए जरूर दूँगा।’ तीसरे दिन फिर श्यामलाल पहुँचा और बोला- ‘रुपए दो।’ तो रामलाल ने कहा- ‘कल जरूर दूँगा।’ दूसरे दिन श्यामलाल फिर पहुँचा और बोला- ‘लाओ मेरे रुपए।’ रामलाल ने कहा- ‘रुपए जुटे नहीं, मेरे पास रुपए हैं नहीं, तो मैं कहाँ से दूँ?’ परसों आना।’ रामलाल की बातें सुनकर श्यामलाल को गुस्सा आ गया और ‘परसों-परसों कहता है, रुपए देता नहीं’- ऐसा कहकर उसने रामलाल को पाँच जूते मार दिए। रामलाल ने कोर्ट में नालिश (शिकायत) कर दी। श्यामलाल को बुलाया गया और पूछा गया- ‘तुमने इसके घर पर जाकर जूता मारा है?’ तो श्यामलाल ने कहा- ‘हाँ साहब, मैंने जूता मारा है।’ मैजिस्ट्रेट ने पूछा- ‘क्यों मारा?’
श्यामलाल ने कहा- ‘इसको मैंने रुपए दिए थे और इसने वायदा किया था कि मैं इस महीने रुपए लौटा दूँगा। महीना बीत जाने पर मैंने इसके घर पर जाकर रुपए मांगे तो कल-परसों, कल-परसों कहकर इसने मुझे बहुत तंग किया। इस पर मैंने गुस्से में आकर इसे पाँच जूते मार दिए। तो सरकार! पाँच जूतों के पाँच रुपए काटकर शेष रुपए मुझे दिला दीजिए।’ मैजिस्ट्रेट ने हँसकर कहा- ‘यह फौजदारी कोर्ट है। यहाँ रुपए दिलाने का कायदा (नियम) नहीं है। यहाँ दंड देने का कायदा है। इसलिए आपको जूता मारने के बदले में कैद या जुर्माना भोगना ही पड़ेगा। आपको रुपए लेने हों तो दीवानी कोर्ट में जाकर नालिश करो, वहाँ रुपए दिलाने का कायदा है; क्योंकि वह विभाग अलग है।’
इस तरह अशुभकर्मों का फल जो प्रतिकूल परिस्थिति है, वह ‘फौजदारी’ है, इसलिए उसका स्वरूप से त्याग नहीं कर सकते और शुभकर्मों का फल जो अनुकूल परिस्थिति है, वह ‘दीवानी’ है इसलिए उसका स्वरूप से त्याग किया जा सकता है। इससे यह सिद्ध हुआ कि मनुष्य के शुभ-अशुभ-कर्मों का विभाग अलग-अलग है। इसलिए शुभकर्मों (पुण्यों) और अशुभकर्मों (पापों) का अलग-अलग संग्रह होता है। स्वभाविक रूप से ये दोनों एक दूसरे से कटते नहीं अर्थात पापों से पुण्य नहीं कटते और पुण्यों से पाप नहीं कटते। हाँ, अगर मनुष्य पाप काटने के उद्देश्य से (प्रायश्चित-रूप से) शुभकर्म करता है, तो उसके पाप कट सकते हैं।
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