श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
मनुष्य शरीर सुख-दुःख भोगने के लिए नहीं है। सुख भोगने के स्थान स्वर्गादिक हैं और दुःख भोगने के स्थान नरक तथा चौरासी लाख योनियाँ हैं। इसलिए वे भोगयोनियाँ हैं और मनुष्य कर्मयोनि है। परंतु यह कर्मयोनि उनके लिए है जो मनुष्यशरीर में समाप्त नहीं होते, केवल जन्म-मरण के सामान्य प्रवाह में ही पड़े हुए हैं। वास्तव में मनुष्य शरीर सुख-दुःख से ऊँचा उठने के लिए अर्थात मुक्ति की प्राप्ति के लिए ही मिला है। इसलिए इसको कर्मयोनि न कहकर ‘साधनयोनि’ ही कहना चाहिए। प्रारब्ध-कर्मों के फलस्वरूप जो अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थिति आती है, उन दोनों में अनुकूल परिस्थिति का स्वरूप से त्याग करने में तो मनुष्य स्वतंत्र है, पर प्रतिकूल परिस्थिति का स्वरूप से त्याग करने में मनुष्य पर तंत्र है अर्थात उसका स्वरूप से त्याग नहीं किया जा सकता। कारण यह है कि अनुकूल परिस्थिति दूसरों का हित करने, उन्हें सुख देने के फलस्वरूप बनी है और प्रतिकूल परिस्थिति दूसरों को दुःख देने के फलस्वरूप बनी है। इसको एक दृष्टान्त से इस प्रकार समझ सकते हैं- |
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