श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
नियत कर्मों का मोहपूर्वक त्याग करने से वह त्याग ‘तामस’ हो जाता है तथा सुख और आराम के लिए त्याग करने से वह त्याग ‘राजस’ हो जाता है। सुखेच्छा, फलेच्छा तथा आसक्ति का त्याग करके नियत कर्मों को करने से वह त्याग ‘सात्त्विक’ हो जाता है। तात्पर्य यह है कि मोह में उलझ जाना तामस पुरुष का स्वभाव है, सुख आराम में उलझ जाना राजस पुरुष का स्वभाव है और इन दोनों से रहित होकर सावधानीपूर्वक निष्कामभाव से कर्तव्य-कर्म करना सात्त्विक पुरुष का स्वभाव है। इस सात्त्विक स्वभाव अथवा सात्त्विक त्याग से ही कर्म और कर्मफल से संबंध-विच्छेद होता है। राजस और तामस त्याग से नहीं; क्योंकि राजस और तामस त्याग वास्तव में त्याग है ही नहीं। लोग सामान्य रीति से स्वरूप से कर्मों को छोड़ देने को ही त्याग मानते हैं; क्योंकि उन्हें प्रत्यक्ष में वही त्याग दीखता है। कौन व्यक्ति कौन सा काम किस भाव से कर रहा है, इसका उन्हें पता नहीं लगता। परंतु भगवान भीतर की कामना ममता-आसक्ति के त्याग को ही त्याग मानते हैं; क्योंकि ये ही जन्म मरण के कारण हैं।[1] यदि बाहर के त्याग को ही असली त्याग माना जाए तो सभी मरने वालों का कल्याण हो जाना चाहिए; क्योंकि उनकी तो संपूर्ण वस्तुएँ छूट जाती हैं; और तो क्या, अपना कहलाने वाला शरीर भी छूट जाता है और उनको वे वस्तुएँ प्रायः याद तक नहीं रहतीं! अतः भीतर का त्याग ही असली त्याग है। भीतर का त्याग होने से बाहर से वस्तुएँ अपने पास रहें या न रहें, मनुष्य उनसे बँधता नहीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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