श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
नियतस्य तु सन्न्यास: कर्मणे नोपपद्यते ।
व्याख्या- [तीन तरह के त्याग का वर्णन भगवान इसलिए करते हैं कि अर्जुन कर्मों का स्वरूप से त्याग करना चाहते थे- ‘श्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके’[1] अतः त्रिविध त्याग बताकर अर्जुन को चेत करना था, और आगे के लिए मनुष्य मात्र को यह बताना था कि नियत कर्मों का स्वरूप से त्याग करना भगवान को मान्य (अभीष्ट) नहीं है। भगवान तो सात्त्विक त्याग को ही वास्तव में त्याग मानते हैं। सात्त्विक त्याग से संसार के संबंध का सर्वथा विच्छेद हो जाता है। दूसरी बात, सत्रहवें अध्याय में भी भगवान गुणों के अनुसार श्रद्धा, आहार आदि के तीन-तीन भेद कहकर आए हैं, इसलिए यहाँ भी अर्जुन द्वारा त्याग का तत्त्व पूछने पर भगवान ने त्याग के तीन भेद कहे हैं।] ‘नियतस्य तु संन्यासः कर्मणो नोपपद्यते’- पूर्व श्लोक में भगवान के त्याग के विषय में अपना जो निश्चित उत्तम मत बताया है, उससे यह तामस त्याग बिलकुल ही विपरीत है और सर्वथा निकृष्ट है, यह बताने के लिए यहाँ ‘तु’ पद आया है। नियत कर्मों का त्याग करना कभी भी उचित नहीं है; क्योंकि वे तो आवश्यकर्तव्य हैं। बलिवैश्वदेवआदि यज्ञ करना, कोई अतिथि आ जाए तो गृहस्थ धर्म के अनुसार उसको अन्न, जल आदि देना, विशेष पर्व में या श्राद्ध-तर्पण के दिन ब्राह्मणों को भोजन कराना और दक्षिणा देना, अपने वर्ण-आश्रम के अनुसार प्रातः और सायंकाल में संध्या करना आदि कर्मों को न मानना और न करना ही नियत कर्मों का त्याग है। ‘मोहात्तस्य परित्यागस्तामसः परिकीर्तितः’- ऐसे नियत कर्मों को मूढ़ता से अर्थात बिना विवेक-विचार के छोड़ देना तामस त्याग कहा जाता है। सत्संग, सभा, समिति आदि में जाना आवश्यक था, पर आलस्य में पड़े रहे, आराम करने लग गए अथवा सो गए; घर में माता-पिता बीमार हैं, उनके लिए वैद्य को बुलाने या औषधि लाने के लिए जा रहे थे, रास्ते में कहीं पर लोग ताश-चौपड़ आदि खेल रहे थे, उनको देखकर खुद भी खेल में लग गए और वैद्य को बुलाना या औषधि लाना भूल गए; कोर्ट में मुकदमा चल रहा है, उसमें हाजिर होने के समय हँसी-दिल्लगी, खेल-तमाशा आदि में लग गए और समय बीत गया; शरीर के लिए शौच-स्नान आदि जो आवश्यक कर्तव्य हैं, उनको आलस्य और प्रमाद के कारण छोड़ दिया- यह सब तामस त्याग के उदाहरण हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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