श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
‘कर्तव्य’ शब्द का अर्थ होता है- जिसको हम कर सकते हैं तथा जिसको जरूर करना चाहिए और जिसको करने से उद्देश्य की सिद्धि जरूर होती है। उद्देश्य वही कहलाता है, जो नित्यसिद्ध और अनुत्पन्न है अर्थात जो अनादि है और जिसका कभी विनाश नहीं होता। उस उद्देश्य की सिद्धि मनुष्य जन्म में ही होती है और उसकी सिद्धि के लिए ही मनुष्य शरीर मिला है, न कि कर्मजन्मय परिस्थिति रूप सुख-दुःख भोगने के लिए। कर्मजन्य परिस्थिति वह होती है, जो उत्पन्न और नष्ट होती है। वह परिस्थिति तो मनुष्य के अलावा पशु-पक्षी, कीट-पतंग, वृक्ष, लता, नारकीय-स्वर्गीय आदि योनियों के प्राणियों को भी मिलती है, जहाँ कर्तव्य का कोई प्रश्न ही नहीं है और जहाँ उद्देश्य की पूर्ति का अधिकार भी नहीं है। भगवान के द्वारा अपने मत को ‘निश्चितम्’ कहने का तात्पर्य है कि इस मत में संदेह की कोई गुंजाइश नहीं है, यह मत अटल है अर्थात यह किञ्चिन्मात्र भी इधर-उधर नहीं हो सकता; और ‘उत्तमम्’ कहने का तात्पर्य है कि इस मत में शास्त्रीय सृष्टि से कोई कमी नहीं है, प्रत्युत यह पूर्णता को प्राप्त करने वाला है। संबंध- इसी अध्याय के चौथे श्लोक में भगवान ने तीन प्रकार के त्याग की बात कही थी। अब आगे के तीन श्लोकों में उसी त्रिविध त्याग का वर्णन करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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