श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
अर्थ- जो कुछ कर्म है, वह सब दु:ख रूप ही है- ऐसा समझकर यदि कोई शारीरिक क्लेश के भय से कर्तव्य-कर्मों का त्याग कर दे, तो वह ऐसा राजस त्याग करके त्याग के फल को किसी प्रकार भी नहीं पाता है। व्याख्या- ‘दुःखमित्येव यत्कर्म’- यज्ञ, दान आदि शास्त्रीय नियत कर्मों को करने में केवल दुःख ही भोगना पड़ता है, और उनमें है ही क्या? क्योंकि उन कर्मों को करने के लिए अनेक नियमों में बँधना पड़ता है और खर्चा भी करना पड़ता है- इस प्रकार राजस पुरुष को उन कर्मों में केवल दुःख ही दुःख दीखता है। दुःख दीखने का कारण यह है कि उनका परलोक पर, शास्त्रों पर, शास्त्रविहित कर्मों पर और उन कर्मों के परिणाम पर श्रद्धा-विश्वास नहीं होता। ‘कायक्लेशभयात्यजेत्’- राजस मनुष्य को शास्त्र मर्यादा और लोक-मर्यादा के अनुसार चलने से शरीर में क्लेश अर्थात परिश्रम का अनुभव होता है।[1] राजस मनुष्य को अपने वर्ण, आश्रम आदि के धर्म का पालन करने में और माता-पिता, गुरु, मालिक आदि की आज्ञा का पालन करने में पराधीनता और दुःख का अनुभव होता है तथा उनकी आज्ञा भंग करके जैसी मरजी आए, वैसा करने में स्वाधीनता और सुख का अनुभव होता है। राजस मनुष्यों के विचार यह होते हैं कि ‘गृहस्थ में आराम नहीं मिलता, स्त्री-पुत्र आदि हमारे अनुकूल नहीं है अथवा सब कुटुम्बी मर गए हैं, घर में काम करने के लिए कोई रहा नहीं, खुद को तकलीफ उठानी पड़ती है, इसलिए साधु बन जाएँ तो आराम से रहेंगे, रोटी, कपड़ा आदि सब चीजें मुफ्त में मिल जाएँगी, परिश्रम नहीं करना पड़ेगा; कोई ऐसी सरकारी नौकरी मिल जाए, जिससे काम कम करना पड़े और रुपए आराम से मिलते रहें, हम काम न करें तो भी उस नौकरी से हमें कोई छुड़ा न सके, हम नौकरी छोड़ देंगे तो हमें पेंशन मिलती रहेगी’, इत्यादि। ऐसे विचारों के कारण उन्हें घर का काम-धंधा करना अच्छा नहीं लगता और वे उसका त्याग कर देते हैं। यहाँ शंका होती है कि ज्ञानप्राप्ति के साधनों में दुःख और दोष को बार-बार देखने की बात कही है[2] और वहाँ कर्मों में दुःख देखकर उनका त्याग करने को राजस त्याग कहा है अर्थात कर्मों के त्याग का निषेध किया है- इन दोनों बातों में परस्पर विरोध प्रतीत होता है। इसका समाधान है कि वास्तव में इन दोनों में विरोध नहीं है, प्रत्युत इन दोनों का विषय अलग-अलग है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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