श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
कर्तव्य- कर्मों का त्याग करने में जो राजस और तामस- ये दो भेद होते हैं, पर परिणाम (आलस्य, प्रमाद, अतिनिद्रा आदि) में दोनों एक हो जाते हैं अर्थात परिणाम में दोनों ही तामस हो जाते हैं, जिसका फल अधोगति होता है- ‘अधो गच्छन्ति तामसाः।’[3] एक शंका यह भी हो सकती है कि सत्संग, भगवत्- कथा भक्तचरित्र सुनने से किसी को वैराग्य हो जाए तो वह प्रभु को पाने के लिए आवश्यक कर्तव्य-कर्मों को भी छोड़ देता है और इसलिए भगवान के भजन में लग जाता है। इसलिए उसका वह कर्तव्य-कर्मों का त्याग राजस कहा जाना चाहिए? ऐसी बात नहीं है। सांसारिक कर्मों को छोड़कर जो भजन में लग जाता है, उसका त्याग राजस या तामस नहीं हो सकता। कारण कि भगवान को प्राप्त करना मनुष्य जन्म का ध्येय है; अतः उस ध्येय की सिद्धि के लिए कर्तव्य-कर्मों का त्याग करना वास्तव में कर्तव्य का त्याग करना नहीं है, प्रत्युत असली कर्तव्य को करना है। उस असली को कर्तव्य को करते हुए आलस्य, प्रमाद आदि दोष नहीं आ सकते; क्योंकि उसकी रुचि भगवान में रहती है। परंतु राजस और तामस त्याग करने वालों में आलस्य, प्रमाद आदि दोष आएंगे ही; क्योंकि उसकी रुचि भोगों में रहती है। ‘स कृत्वा राजसं त्यागं नैव त्यागफलं लभेत्’- त्याग का फल ‘शांति’ है। राजस मनुष्य त्याग करके भी त्याग के फल (शांति) को नहीं पाता। कारण कि उसने जो त्याग किया है, वह अपने सुख-आराम के लिए ही किया है। ऐसा त्याग तो पशु-पक्षी आदि भी करते हैं। अपने सुख-आराम के लिए शुभ-कर्मों का त्याग करने से राजस मनुष्य को शांति तो नहीं मिलती, पर शुभ-कर्मों का त्याग का फल दंडरूप से जरूर भोगना पड़ता है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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