श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
सप्तदश अध्याय
व्याख्या- ‘श्रद्धया परया तप्तम्’- शरीर, वाणी और मन के द्वारा जो तप किया जाता है, वह तप ही मनुष्यों का सर्वश्रेष्ठ कर्तव्य है और यही मानव-जीवन के उद्देश्य की पूर्ति का अचूक उपाय है[1] तथा इसको सांगोपांग- अच्छी तरह से करने पर मनुष्य के लिए कुछ करना बाकी नहीं रहता अर्थात जो वास्तविक तत्त्व है, उसमें स्वतः स्थिति हो जाती है- ऐसे अटल विश्वासपूर्वक श्रेष्ठ श्रद्धा करके बड़े-बड़े विघ्न और बाधाओं की कुछ भी परवाह न करते हुए उत्साह एवं आदरपूर्वक तप का आचरण करना ही परम श्रद्धा से युक्त मनुष्यों द्वारा उस तप को करना है। ‘अफलाकांक्षिभिः युक्तैः नरैः’- यहाँ इन दो विशेषणों सहित ‘नरैः’ पद देने का तात्पर्य यह है कि आंशिक सद्गुण-सदाचार तो प्राणिमात्र में रहते ही हैं; परंतु मनुष्य में यह विशेषता है कि वह सद्गुण-सदाचारों को सांगोपांग एवं विशेषता से अपने में ला सकता है और दुर्गुण-दुराचार, कामना, मूढ़ता आदि दोषों को सर्वथा मिटा सकता है। निष्कामभाव मनुष्यों में ही हो सकता है। सात्त्विक तप में तो ‘नर’ शब्द दिया है; परंतु राजस-तामस तप में मनुष्यवाचक शब्द दिया ही नहीं। तात्पर्य यह है कि अपना कल्याण करने के उद्देश्य से मिले हुए अमूल्य शरीर को पाकर भी जो कामना, दम्भ, मूढ़ता आदि दोषों को पकड़े हुए हैं, वे मनुष्य कहलाने के लायक ही नहीं है। फल की इच्छा न रखकर निष्कामभाव से तप का अनुष्ठान करने वाले मनुष्यों के लिए यहाँ उपर्युक्त पद आए हैं। ‘तपस्तत्त्रिविधम्’- यहाँ केवल सात्त्विक तप में ‘त्रिविध’ पद दिया है और राजस तथा तामस तप में ‘त्रिविध’ पद न देकर ‘यत्-तत्’ पद देकर ही काम चलाया है। इसका आशय यह है कि शारीरिक वाचिक और मानसिक- तीनों तप केवल सात्त्विक में ही सांगोपांग आ सकते हैं, राजस तथा तामस में तो आंशिक रूप से ही आ सकते हैं। इसमें भी राजस में कुछ अधिक लक्षण आ जाएंगे क्योंकि राजस मनुष्य का शास्त्रविधि की तरफ खयाल रहता है। परंतु तामस में तो उन तपों के बहुत ही कम लक्षण आएंगे; क्योंकि तामस मनुष्यों में मूढ़ता, दूसरों को कष्ट देना आदि दोष रहते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ शरीर, वाणी और मन का तप सांगोपांग-रूप से तभी संपन्न होता है, जब नाशवान वस्तुओं से संबंध-विच्छेद का उद्देश्य रहता है।
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