श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
सप्तदश अध्याय
‘सौम्यत्वम्’- हृदय में हिंसा, क्रूरता, कुटिलता, असहिष्णुता, द्वेष आदि भावों के न रहने से एवं भगवान के गुण, प्रभाव, दयालुता, सर्वव्यापकता आदि पर अटल विश्वास होने से साधक के मन में स्वाभाविक ही ‘सौम्यभाव’ रहता है। फिर उसको कोई टेढ़ा वचन कह दे, उसका तिरस्कार कर दे, उस पर बिना कारण दोषारोपण करे, उसके साथ कोई वैर-द्वैष रखे अथवा उसके धन, मान, महिमा आदि की हानि हो जाए तो भी उसके सौम्यभाव में कुछ भी फर्क नहीं पड़ता। ‘मौनम्’- अनुकूलता-प्रतिकूलता, संयोग-वियोग, राग-द्वेष, सुख-दुःख आदि द्वंद्वों को लेकर मन में हलचल का न होना ही वास्तव में ‘मौन’ है।[1] शास्त्रों, पुराणों और संत-महापुरुषों की वाणियों का तथा उनके गहरे भावों का मनन होता रहे; गीता, रामायण, भागवत आदि भगवत्संबंधी ग्रंथों में कहे हुए भगवान के गुणों का, चरित्रों का सदा मनन होता रहे; संसार के प्राणी किस प्रकार सुखी हो सकते हैं? सबका कल्याण किन-किन उपायों से हो सकता है? किन-किन सरल युक्तियों से हो सकता है? उन-उन उपायों का और युक्तियों का मन में हरदम मनन होता है रहे- ये सभी ‘मौन’ शब्द से कहे जा सकते हैं। ‘आत्मविनिग्रहः’- मन बिलकुल एकाग्र हो जाए और तैलधारावत एक ही चिन्तन करता रहे- इसको भी मन का निग्रह कहते हैं; परंतु मन का सच्चा निग्रह यही है कि मन साधक के वश में रहे अर्थात मन को जहाँ से हटाना चाहें, वहाँ से हट जाए और जहाँ जितनी देर लगाना चाहें, वहाँ उतनी देर लगा रहे। तात्पर्य यह कि साधक मन के वशीभूत होकर काम नहीं करे, प्रत्युत मन ही उसके वशीभूत होकर काम करता रहे। इस प्रकार मन का वशीभूत होना ही वास्तव में ‘आत्मविनिग्रह’ है। ‘भावसंशुद्धिः’- जिस भाव में अपने स्वार्थ और अभिमान का त्याग हो और दूसरों की हितकारिता हो, उसे ‘भावसंशुद्धि’ अर्थात भाव की महान पवित्रता कहते हैं। जिसके भीतर एक भगवान का ही आसरा, भरोसा है, एक भगवान का ही चिन्तन है और एक भगवान की तरफ चलने का ही निश्चय है, उसके भीतर के भाव बहुत जल्दी शुद्ध हो जाते हैं। फिर उसके भीतर उत्पत्ति-विनाशशील सांसारिक वस्तुओं का सहारा नहीं रहता; क्योंकि संसार का सहारा रखने से ही भाव अशुद्ध होते हैं। ‘इत्येतत्तपो मानसमुच्यते’- इस प्रकार जिस तप में मन की मुख्यता होती है, वह मानस (मन-संबंधी) तप कहलाता है। संबंध- अब भगवान आगे के तीन श्लोकों में क्रमशः सात्त्विक, राजस और तामस का वर्णन करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ यहाँ ‘मौनम्’ पद वाणी के मौन (चुप रहने) का वाचक नहीं है। यदि यह वाणी के मौन का वाचक है, तो इसे वाणी संबंधी तप में देते। परंतु यहाँ ‘मौन’ शब्द मानसिक तप के अंतर्गत आया है। गीता में प्रायः यह देखा जाता है कि जहाँ अर्जुन का क्रियापरक प्रश्न है, वहाँ भावपरक उत्तर देते हैं। जैसे दूसरे अध्याय के चौवनवें श्लोक में अर्जुन ने पूछा कि ‘स्थितधीः किं प्रभाषेत’ स्थितप्रज्ञ पुरुष कैसे बोलता है? तो भगवान ने उसका उत्तर दिया- ‘दुखेष्वनुद्विग्नमनाः........स्थितधीर्मुनिरुच्यते ।।’ अर्थात अनुकूलता-प्रतिकूलता को लेकर जिसके मन में हर्ष-शोक नहीं होते, वह स्थितप्रज्ञ मुनि (मौनी) है। तात्पर्य यह कि भगवान क्रिया की अपेक्षा भाव को श्रेष्ठ मानते हैं। इसलिए भगवान ने यहाँ भी ‘मौन’ को मानसिक तप में लिया है।
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