श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
सप्तदश अध्याय
व्याख्या- ‘मनः प्रसादः’- मन की प्रसन्नता को ‘मनःप्रसाद’ कहते हैं। वस्तु, व्यक्ति, देश, काल, परिस्थिति, घटना आदि के संयोग से पैदा होने वाली प्रसन्नता स्थायीरूप से हरदम नहीं रह सकती; क्योंकि जिसकी उत्पत्ति होती है, वह वस्तु स्थायी रहने वाली नहीं होती। परंतु दुर्गुण-दुराचारों से संबंध-विच्छेद होने पर जो स्थायी तथा स्वाभाविक प्रसन्नता प्रकट होती है, वह हरदम रहती है और वही प्रसन्नता मन, बुद्धि आदि में आती है, जिससे मन में कभी अशांति होती ही नहीं अर्थात मन हरदम प्रसन्न रहता है। मन में अशांति, हलचल आदि कब होते हैं? जब मनुष्य धन-संपत्ति, स्त्री-पुत्र आदि नाशवान चीजों का सहारा ले लेता है। जिसका सहारा उसने ले रखा है, वे सब चीजें आने-जाने वाली हैं, स्थायी रहने वाली नहीं हैं। अतः उनके संयोग-वियोग से उसके मन में हलचल आदि होती है। यदि साधक न रहने वाली चीजों का सहारा छोड़कर नित्य-निरंतर रहने वाले प्रभु का सहारा ले ले, तो फिर पदार्थ, व्यक्ति आदि के संयोग-वियोग को लेकर उसके मन में कभी अशांति, हलचल नहीं होगी।
जो शरीर के लिए हितकारक एवं नियमित भोजन करने वाला है, सदा एकान्त में रहने के स्वभाव वाला है, किसी के पूछने पर कभी कोई हित की उचित बात कह देता है अर्थात बहुत ही कम मात्रा में बोलता है, जो सोना और घूमना बहुत कम करने वाला है। इस प्रकार जो शास्त्र की मर्यादा के अनुसार खान-पान-विहार आदि का सेवन करने वाला है, वह साधक बहुत ही जल्दी चित्त की प्रसन्नता को प्राप्त हो जाता है। -इन उपायों से मन सदा प्रसन्न रहता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ सर्ववेदान्तसिद्धान्तसारसंग्रह 372
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