श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
सप्तदश अध्याय
व्याख्या- ‘अनुद्वेगकरं वाक्यम्’- जो वाक्य वर्तमान में और भविष्य में कभी किसी में भी उद्वेग, विक्षेप और हलचल पैदा करने वाला न हो, वह वाक्य ‘अनुद्वेगकर’ कहा जाता है। ‘सत्यं प्रियहितं च यत्’- जो वाक्य वर्तमान में और भविष्य में कभी किसी में भी उद्वेग, विक्षेप और हलचल पैदा करने वाला न हो, वह वाक्य ‘अनुद्वेगकर’ कहा जाता है। ‘सत्यं प्रियहितं च यत्’- जैसा पढ़ा, सुना, देखा और निश्चय किया गया हो, उसको वैसा का वैसा ही अपने स्वार्थ और अभिमान का त्याग करके दूसरों को समझाने के लिए कह देना ‘सत्य’ है।[1] जो क्रूरता, रूखेपन, तीखेपन, ताने, निन्दा-चुगली और अपमानकारक शब्दों से रहित हो और जो प्रेमयुक्त, मीठे, सरल और शांत वचनों में कहा जाए, वह वाक्य ‘प्रिय’ कहलाता है।[2] जो हिंसा, डाह, द्वेष, वैर आदि से सर्वथा रहित हो और प्रेम, दया, क्षमा, उदारता, मंगल आदि से भरा हो तथा जो वर्तमान में और भविष्य में भी अपना और दूसरे किसी का अनिष्ट करने वाला न हो, वह वाक्य ‘हित’ (हितकर) कहलाता है। ‘स्वाध्यायाभ्यसनं चैव’- पारमार्थिक उन्नति में सहायक गीता, रामायण, भागवत आदि ग्रंथों को स्वयं पढ़ना और दूसरों को पढ़ाना, भगवान तथा भक्तों के चरित्रों को पढ़ाना आदि ‘स्वाध्याय’ है। गीता आदि पारमार्थिक ग्रंथों की बार-बार आवृत्ति करना, उन्हें कण्ठस्थ करना, भगवन्नाम का जप करना, भगवान की बार-बार स्तुति प्रार्थना करना आदि ‘अभ्यसन’ है। ‘च एव’- इन दो अव्यय पदों से वाणी संबंधी तप की अन्य बातों को भी ले लेना चाहिए; जैसे- दूसरों की निन्दा न करना, दूसरों के दोषों को न कहना, वृथा बकवाद न करना अर्थात जिससे अपना तथा दूसरों का कोई लौकिक या पारमार्थिक हित सिद्ध न हो- ऐसे वचन न बोलना, पारमार्थिक साधन में बाधा डालने वाले तथा श्रृंगार रस के काव्य, नाटक, उपन्यास आदि न पढ़ना अर्थात जिनसे काम, क्रोध, लोभ आदि को सहायता मिले- ऐसी पुस्तकों को न पढ़ना आदि-आदि। ‘वाङ्मयं तप उच्यते’- उपर्युक्त सभी लक्षण जिसमें होते हैं, वह वाणी से होने वाला तप कहलाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात्र ब्रूयात् सत्यमप्रियम्। प्रियं च नानृतं ब्रूयादेष धर्मः सनातनः ।। (मनुस्मृति 4।138)
‘मनुष्य को सत्य बोलना चाहिए और प्रिय बोलना चाहिए। उसमें भी सत्य हो, पर अप्रिय न हो और प्रिय हो, पर असत्य न हो- यही सनातन धर्म है।’ - ↑ प्रियवाक्यप्रदानेन सर्वे तुष्यन्ति जन्तवः। तस्मात्तदेव वक्तव्यं वचने का दरिद्रता ।।
‘प्रिय वाक्य बोलने से मनुष्य, पशु, पक्षी आदि संपूर्ण प्राणी प्रसन्न हो जाते हैं, इसलिए मनुष्य को प्रिय वाक्य ही बोलना चाहिए। बोलने में दरिद्रता- कंजूसी किस बात की?’
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