श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
सप्तदश अध्याय
इसलिए राजस और तामस तप में शारीरिक, वाचिक और मानसिक- यह तीनों प्रकार का तप सांगोपांग नहीं लिया जा सकता है। वहाँ तो ‘यत्-तत्’ पदों से आंशिक जितना-जितना आ सके, उतना-उतना ही लिया जा सकता है। तीसरी बात, भगवद्गीता का आदि से अंत तक अध्ययन करने पर यह असर पड़ता है कि इसका उद्देश्य केवल जीव का कल्याण करने का है। कारण कि अर्जुन का जो प्रश्न है, वह निश्चित श्रेय (कल्याण) का है।[1] भगवान ने भी उत्तर में जितने साधन बताये हैं, वे ‘सब जीवों का निश्चित कल्याण हो जाए’- इस लक्ष्य को लेकर ही बताये हैं। इसलिए गीता में जहाँ-कहीं सात्त्विक, राजस और तामस भेद किया गया है, वहाँ जो सात्त्विक विभाग है, वह ग्राह्य है; क्योंकि वह मुक्ति देने वाला है- ‘दैवी संपद्विमोक्षाय’ और जो राजस-तासम विभाग है, वह त्याज्य है; क्योंकि वह बाँधने वाला है- ‘निबंधायासुरी मता।’ इसी आशय से भगवान यहाँ सात्त्विक तप में शारीरिक, वाचिक और मानसिक- इन तीनों तपों का लक्ष्य कराने के लिए ‘त्रिविधम्’ पद देते हैं। ‘सात्त्विकं परिचक्षते’- परम श्रद्धा से युक्त, फल को न चाहने वाले मनुष्यों के द्वारा जो तप किया जाता है, वह सात्त्विक तप कहलाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 2।7; 3।2; 5।1
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