श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
षोडश अध्याय
यहाँ दैवी-संपत्ति कहने का तात्पर्य है कि यह भगवान की संपत्ति है। अतः भगवान का संबंध होने से, उनका आश्रय लेने से शरणागत भक्त में यह स्वाभाविक ही आती है। जैसे शबरी के प्रसंग में राम जी ने कहा है- नवधा भगति कहउँ तोहि पाहीं। सावधान सुनु धरु मन माहीं ।। मनुष्य-देवता, भूत-पिशाच, पशु-पक्षी, नारकीय जीव, कीट-पतंग, लता-वृक्ष आदि जितने भी स्थावर-जंगम प्राणी हैं, उन सबमें अपनी-अपनी योनि के अनुसार मिले हुए शरीरों के रुग्ण एवं जीर्ण हो जाने पर भी ‘मैं जीता रहूँ, मेरे प्राण बने रहें’- यह इच्छा बनी रहती है।[2] इस इच्छा का होना ही आसुरी-संपत्ति है। त्यागी-वैरागी साधक में भी प्राणों के बने रहने की इच्छा रहती है; परंतु उसमें प्राणपोषण-बुद्धि, इंद्रिय-लोलुपता नहीं रहती; क्योंकि उसका उद्देश्य परमात्मा होता है, न कि शरीर और संसार। जब साधक भक्त का भगवान में प्रेम हो जाता है, तब उसको भगवान प्राणों से भी प्यारे लगते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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