श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
चतुर्दश अध्याय
रजो रागात्मकं विद्धि तृष्णासंगसमुद्भवम् । अर्थ- हे कुन्तीनन्दन! तृष्णा और आसक्ति को पैदा करने वाले रजोगुण को तुम रागस्वरूप समझो वह कर्मों की आसक्ति से शरीरधारी को बाँधता है। व्याख्या- ‘रजो रागात्मकं विद्धि’- यह रजोगुण रागस्वरूप है अर्थात किसी वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति, घटना, क्रिया आदि में जो प्रियता पैदा होती है, वह प्रियता रजोगुण का स्वरूप है। ‘रागात्मकम्’ कहने का तात्पर्य है कि जैसे स्वर्ण के आभूषण स्वर्णमय होते हैं, ऐसे ही रजोगुण रागमय है। पातञ्जलयोगदर्शन में ‘क्रिया’ को रजोगुण का स्वरूप कहा गया है।[1] परंतु श्रीमद्भागवद्गीता में भगवान (क्रिया मात्र को गौणरूप से रजोगुण मानते हुए भी) मुख्यतः राग को ही रजोगुण का स्वरूप मानते हैं।[2] इसलिए ‘योगस्थः कुरु कर्माणि संग त्यक्त्वा’[3]। इसी अध्याय के बाईसवें श्लोक में भगवान कहते हैं कि ‘प्रवृत्ति’ अर्थात क्रिया करने का भाव उत्पन्न होने पर भी गुणातीत पुरुष का उसमें राग नहीं होता। तात्पर्य यह हुआ कि गुणातीत पुरुष में भी रजोगुण के प्रभाव से प्रवृत्ति तो होती है, पर वह रागपूर्वक नहीं होती। गुणातीत होने में सहायक होने पर भी सत्त्वगुण को सुख और ज्ञान की आसक्ति से बाँधने वाला कहा गया है। इससे सिद्ध होता है कि आसक्ति ही बन्धनकारक है, सत्त्वगुण स्वयं नहीं। अतः भगवान यहाँ राग को ही रजोगुण का मुख्य स्वरूप जानने के लिए कह रहे हैं। महासर्ग के आदि में परमात्मा का ‘बहु स्यां प्रजायेय’- यह संकल्प होता है। यह संकल्प रजोगुणी है। इसको गीता ने ‘कर्म’ नाम से कहा है।[4] जिस प्रकार दही को बिलोने से मक्खन और छाछ अलग-अलग हो जाते हैं, ऐसे ही स़ृष्टि रचना के इस रजोगुणी संकल्प से प्रकृति में क्षोभ पैदा होता है, जिससे सत्त्वगुण रूपी मक्खन और तमोगुण रूपी छाछ अलग-अलग हो जाती है। सत्त्वगुण से अंतःकरण और ज्ञानेंद्रियाँ, रजोगुण से प्राण और कर्मेंद्रियाँ तथा तमोगुण से स्थूल पदार्थ, शरीर आदि का निर्माण होता है। तीनों गुणों से संसार के अन्य पदार्थों की उत्पत्ति होती है। इस प्रकार महासर्ग के आदि में भगवान का सृष्टिरचना रूप कर्म भी सर्वथा रागरहित होता है।[5] ‘तृष्णासंगसमुद्भवम्’- प्राप्त वस्तु, व्यक्ति, पदार्थ, परिस्थिति, घटना आदि बने रहें तथा वे और भी मिलते रहें- ऐसी ‘जिमि प्रतिलाभ लोभ अधिकाई’ की तरह तृष्णा पैदा हो जाती है। इस तृष्णा से फिर वस्तु आदि में आसक्ति पैदा हो जाती है। व्याकरण के अनुसार इस ‘तृष्मासंगसमुद्भवम्’ पद के दो अर्थ होते हैं- (1) जिससे तृष्णा और आसक्ति पैदा होती है[6] अर्थात तृष्णा और आसक्ति को पैदा करने वाला और (2) जो तृष्णा और आसक्ति से पैदा होता है[7] अर्थात तृष्णा और आसक्ति से पैदा होने वाला। जैसे बीज और वृक्ष अन्योन्य कारण हैं, अर्थात बीज से वृक्ष पैदा होता है और वृक्ष से फिर बहुत से बीज पैदा हो जाते हैं, ऐसे ही रागस्वरूप रजोगुण से तृष्णा और आसक्ति बढ़ती है तथा तृष्णा और आसक्ति से रजोगुण बहुत बढ़ जाता है। तात्पर्य है कि ये दोनों ही एक-दूसरे को पुष्ट करने वाले हैं। अतः उपर्युक्त दोनों ही अर्थ ठीक हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ प्रकाशक्रियास्थितिशीलं भूतेंद्रियात्मकं भोगापवर्गार्थं दृश्यम्। (योगदर्शन 2।18)
- ↑ श्रीमद्भागवद्गीता की एक बहुत बड़ी विलक्षणता यह है कि वह किसी मत का खंडन किये बिना ही उस विषय में अपनी मान्यता प्रकट कर देती है। गीता में भगवान ने क्रिया को भी रजोगुण माना है- ‘लोभः प्रवृत्तिरारम्भः कर्मणाम्’ (गीता 14:12), और क्रिया को सात्त्विक भी बताया है। (गीता 18:23) इसलिए दोष क्रियाओं में नहीं है, प्रत्युत राग या आसक्तियों में। रागपूर्वक किए हुए कर्म ही बाँधते हैं। तात्पर्य है कि मनुष्य कर्मों की आसक्ति और फलेच्छा से ही बँधता है, कर्म को करने मात्र से नहीं। राग न रहने पर संपूर्ण कर्म करते हुए भी मनुष्य नहीं बँधता। (गीता 4:19) अगर क्रियामात्र ही बन्धनकारक होती है तो जीवन्मुक्त महापुरुषों को भी बाँध देती; क्योंकि क्रियाएँ तो उनके द्वारा भी होती ही हैं। (गीता 14:22) भगवान के द्वारा सृष्टि की रचना करना भी ‘कर्म’ है तथा अवतार लेकर वे भी क्रियाएँ (लीलाएँ) करते हैं, पर कर्मों आसक्ति न रहने से उनको कर्म बाँधते नहीं (9।9)। अठारहवें अध्याय के तेईसवें, चौबीसवें और पच्चीसवें श्लोक में भगवान ने सात्त्विक, राजस और तामस- तीन प्रकार के कर्मों का वर्णन किया है। अगर मात्र कर्म रजोगुण ही होते, तो फिर उनके सात्त्विक और तासम भेद कैसे होते? इससे सिद्ध होता है कि गीता मुख्यतः राग को ही रजोगुण कहती है।
- ↑ गीता 2:48
- ↑ गीता 8:3
- ↑ गीता 4:13
- ↑ तृष्णायाः संगस्य च समुद्भवो यस्मात्।
- ↑ तृष्णायाः संगाश्च समुद्भवो यस्य।
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